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ग़ज़ल
फ़व्वारे छूटते हैं मिज़ा से सरिश्क के
देखो तो मेरी चश्म-ए-गुहर-बार की तरफ़
राजा गिरधारी प्रसाद बाक़ी
ग़ज़ल
बिकने मोती लगे बाज़ार में कौड़ी कौड़ी
याद में तेरी ज़ि-बस चश्म-ए-गुहर-बार हुए
मीर मोहम्मदी बेदार
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ग़ज़ल
रोते हैं अपने हाल पे फिर क्यूँ ये ना-सिपास
कहता है मेरी चश्म-ए-गुहर-बार देख कर
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
ज़ब्त-ए-गिर्या मुझे लाज़िम है कि अग़्यार में याँ
बज़्म में ख़ार न कर चश्म-ए-गुहर-बार मुझे
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
जब सर्फ़-ए-गुफ़्तुगू हूँ तो देखे उन्हें कोई
मंज़ूर हो जो अब्र-ए-गुहर-बार देखना