Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

बसंत पर शेर

उर्दू शायरी में बसंत

कहीं-कहीं मुख्य पात्र के तौर पर सामने आता है । शायरों ने बसंत को उसके सौन्दर्यशास्त्र के साथ विभिन्न और विविध तरीक़ों से शायरी में पेश किया है ।उर्दू शायरी ने बसंत केंद्रित शायरी में सूफ़ीवाद से भी गहरा संवाद किया है ।इसलिए उर्दू शायरी में बहार को महबूब के हुस्न का रूपक भी कहा गया है । क्लासिकी शायरी के आशिक़ की नज़र से ये मौसम ऐसा है कि पतझड़ के बाद बसंत भी आ कर गुज़र गया लेकिन उसके विरह की अवधि पूरी नहीं हुई । इसी तरह जीवन के विरोधाभास और क्रांतिकारी शायरी में बसंत का एक दूसरा ही रूप नज़र आता है । यहाँ प्रस्तुत शायरी में आप बहार के इन्हीं रंगों को महसूस करेंगे ।

साक़ी कुछ आज तुझ को ख़बर है बसंत की

हर सू बहार पेश-ए-नज़र है बसंत की

उफ़ुक़ लखनवी

अब के बसंत आई तो आँखें उजड़ गईं

सरसों के खेत में कोई पत्ता हरा था

बिमल कृष्ण अश्क

आया बसंत फूल भी शो'लों में ढल गए

मैं चूमने लगा तो मिरे होंट जल गए

कुमार पाशी

क़ुदरत की बरकतें हैं ख़ज़ाना बसंत का

क्या ख़ूब क्या अजीब ज़माना बसंत का

जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर

हम-रंग की है दून निकल अशरफ़ी के साथ

पाता है के रंग-ए-तलाई यहाँ बसंत

मुनीर शिकोहाबादी

यारब हज़ार साल सलामत रहें हुज़ूर

हो रोज़ जश्न-ए-ईद यहाँ जावेदाँ बसंत

मुनीर शिकोहाबादी

टेसू के फूल दश्ना-ए-ख़ूनी हुए उसे

ब्रिहन के जी कूँ है ये कसाई बसंत रुत

आबरू शाह मुबारक

दिल को बहुत अज़ीज़ है आना बसंत का

'रहबर' की ज़िंदगी में समाना बसंत का

जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर

रश्क-ए-जिनाँ चमन को बनाना बसंत का

हर हर कली में रंग दिखाना बसंत का

जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर

तू ने लगाई अब की ये क्या आग बसंत

जिस से कि दिल की आग उठे जाग बसंत

इंशा अल्लाह ख़ान इंशा

हर शाख़ ज़र्द सुर्ख़ सियह हिज्र-ए-यार में

डसते हैं दिल को आन के जूँ नाग बसंत

इंशा अल्लाह ख़ान इंशा

जोबन पर इन दिनों है बहार-ए-नशात-ए-बाग़

लेता है फूल भर के यहाँ झोलियाँ बसंत

मुनीर शिकोहाबादी

गर शाख़-ए-ज़ाफ़राँ उसे कहिए तो है रवा

है फ़रह-बख़्श वाक़ई इस हद कोहाँ बसंत

इंशा अल्लाह ख़ान इंशा

कोयल नीं के कूक सुनाई बसंत रुत

बौराए ख़ास-ओ-आम कि आई बसंत रुत

आबरू शाह मुबारक

बसंत आई है मौज-ए-रंग-ए-गुल है जोश-ए-सहबा है

ख़ुदा के फ़ज़्ल से ऐश-ओ-तरब की अब कमी क्या है

मह लक़ा चंदा

आते नज़र हैं दश्त-ओ-जबल ज़र्द हर तरफ़

है अब के साल ऐसी है दोस्ताँ बसंत

इंशा अल्लाह ख़ान इंशा

पत्ते नहीं चमन में खड़कते तिरे बग़ैर

करती है इस लिबास में हर-दम फ़ुग़ाँ बसंत

इंशा अल्लाह ख़ान इंशा

जाम-ए-अक़ीक़ ज़र्द है नर्गिस के हाथ में

तक़्सीम कर रहा है मय-ए-अर्ग़वाँ बसंत

मुनीर शिकोहाबादी

जब नबी-साहिब में कोह-ओ-दश्त से आई बसंत

कर के मुजरा शाह-ए-मर्दां की तरफ़ धाई बसंत

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

पैग़ाम-ए-लुत्फ़-ए-ख़ास सुनाना बसंत का

दरिया-ए-फ़ैज़-ए-आम बहाना बसंत का

जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर

बुलबुल हुआ है देख सदा रंग की बहार

इस साल 'आबरू' कूँ बन आई बसंत रुत

आबरू शाह मुबारक

'इंशा' से शैख़ पूछता है क्या सलाह है

तर्ग़ीब-ए-बादा दी है मुझे जवाँ बसंत

इंशा अल्लाह ख़ान इंशा

तस्वीर-ए-रू-ए-यार दिखाना बसंत का

अटखेलियों से दिल को लुभाना बसंत का

जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर

हर सम्त सब्ज़ा-ज़ार बिछाना बसंत का

फूलों में रंग-ओ-बू को लुटाना बसंत का

जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर

करता है बाग़-ए-दहर में नैरंगियाँ बसंत

आया है लाख रंग से बाग़बाँ बसंत

मुनीर शिकोहाबादी

'मुसहफ़ी' अब इक ग़ज़ल लिख तू ग़ज़ल की तरह से

ता करे आलम का ताराज-ए-शकेबाई बसंत

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

ग़ुंचे नीं इस बहार में कडवाया अपना दिल

बुलबुल चमन में फूल के गाई बसंत रुत

आबरू शाह मुबारक

Jashn-e-Rekhta 10th Edition | 5-6-7 December Get Tickets Here

बोलिए