aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "चोबदार"
कल रात चोबदार समेत आ के ले गयाइक ग़ोल तरह-दार-ए-सर-ए-दार को तिरे
दिल-फ़िगार एक पुरख़ार दरख़्त के नीचे दामन चाक किए बैठा हुआ ख़ून के आँसू बहा रहा था। वो हुस्न की देवी यानी मलिका दिल-फ़रेब का सच्चा और जाँ-बाज़ आशिक़ था। उन उश्शाक में नहीं जो इत्र-फुलेल में बस कर और लिबास-ए-फ़ाखिरा में सज कर आशिक़ के भेस में माशूक़ियत का दम भरते हैं, बल्कि उन सीधे सादे भोले भाले फ़िदाइयों में जो कोह और बयाबाँ में सर टकराते और नाला-ओ-फ़रियाद म...
चंद लम्हों बा’द तमारा ने फिर कहना शुरू’ किया। रोज़लीन के वालिद वाक़ई’ बहुत ख़फ़ा थे। जब रोज़लीन उनसे फ़ख़्रिया कहतीं कि उन्होंने एक रूसी शहज़ादे से शादी की है तो वो गरज कर जवाब देते आजकल हर चपड़-क़नात, कोचवान साईस, ख़ाकरूब जो रूस से भाग कर यहाँ आ रहा है, अपने आपको ड्यूक और काऊंट से कम नहीं बताता। तुम्हारा तातारी ख़ाविंद भी करीमिया के किसी ख़ान का चोबदार रहा ह...
ग़ालिब: भई मौलाना, मुझे इतनी मोहलत तो दो कि तुम्हारी तशरीफ़ आवरी पर ज़रा ख़ुश हो लूं। मैं ख़्वाब देख रहा था कि क़िला-ए-मुअल्ला से चोबदार ने आकर ख़बर दी कि जहांपनाह ने याद फ़रमाया है, सो उसी ख़्वाब की ताबीर तुम्हारी मुलाक़ात है।
पॉलिटिकल एजेंट साहब तशरीफ़ लाए ख़ूब दावतें खाईं। ख़ूब शिकार खेले और ख़ूब सैरें कीं। महाराजा साहब ने उनकी तारीफ़ की। उन्होंने महाराजा साहब की तारीफ़ की और उनके इन्साफ़ और रिआया पर्वरी और तंज़ीम की ख़ूब दिल खोल कर दाद दी। मिस्टर मेहता की कार-गुज़ारी ने भी तहसीन का ख़िराज वसूल किया। ऐसा वफ़ाशिआर और कारगुज़ार अफ़्सर इस रियासत में कभी नहीं आया था। एजेंट साहब ने एक ...
बारिश का लुत्फ़ या तो आप भीग कर लेते होंगे या बालकनी में बैठ कर गिरती हुई बूँदों और चमकदार आसमान को देखकर, लेकिन क्या आपने ऐसी शायरी पढ़ी है जो सिर्फ बरसात ही नहीं बल्कि बे-मौसम भी बरसात का मज़ा देती हो? यहाँ हम आप के लिए ऐसी ही शायरी पेश कर रहे हैं जो बरसात के ख़ूबसूरत मौसम को मौज़ू बनाती है। इस बरसाती मौसम में अगर आप ये शायरी पढ़ेंगे तो शायद कुछ ऐसा हो, जो यादगार हो जाएगी।
दिल्ली हिन्दुस्तान के आसमान का एक चमकदार सितारा होने के साथ-साथ पुरानी शान-ओ-शौकत और गंगा-जमुनी तहज़ीब का मर्कज़ भी है। इसके गली-कूचे इतिहास की बेरहम सच्चाइयों के गवाह रहे हैं। यहीं के शायरों ने अपने कलाम में दिल्ली का ज़िक्र जिस जज़्बाती अन्दाज़ में किया है वह पढ़ने से ज़्यादा महसूस करने की शय है। दिल्ली शायरी इसके माज़ी और हाल की ऐसी तस्वीर है जो उर्दू शायरी के सिवा कहीं और नहीं मिल सकती। पेश है यह झलकः
चोबदारچوب دار
Verger
“एक ही बात है। अमाँ ज़बान के खेल छोड़ो और मतलब की सुनो। हुज़ूर-ए-आ’लम तो ख़ैर आ ही रहे हैं, अ’जब नहीं हज़रत सुल्तान-ए-आ’लम भी तशरीफ़ लाएँ। कल से तुम्हारा अस्ली काम शुरू’ होगा। तुम्हें ईजादी क़फ़स और उसके जानवरों की निगाह-दारी पर रखा गया है। क्या समझे? और कल आईएगा ज़रूर। कहीं छुट्टी न ले बैठिएगा।”उसी वक़्त एक चोबदार ताऊस चमन में दाख़िल हुआ। उसने दारोग़ा के पास जाकर चुपके -चुपके कुछ बातें कीं। दारोग़ा ने जवाब में कहा, “सर आँखों पर आएँ। हमारा काम पूरा हो गया।”
मैं क्या भला था ये दुनिया अगर कमीनी थीदर-ए-कमीनगी प चोबदार मैं भी था
“बेगम हमें इतना ज़लील ना कीजीए, एक छोटे से वह’म की ख़ातिर हमारा दिल चकना-चूर किए देती हैं। हम मानते हैं उसकी रगों में आप का ख़ून है। हम उस का मान कर रहे हैं। हम निकाह करेंगे। और अगर ख़ुदा-ए-बरतर की इनायत-ओ-मेहरबानी से इस के बतन से नर बच्चा पैदा हुआ तो हमारी देरीना मुराद बर आयेगी और हमारा वलीअहद होगा।”“कमाल फ़रमाते हैं आलीजाह, कल तो वो मुसाहिबों और पापोश बर्दारों के लाशे जगा रही थी। चोबदार उस की बोटीयां मसल रहे थे, तेरी मेरी गोद में हुमक रही थी, आज उसे निकाह का मर्तबा अता फ़र्मा रहे हैं!” बेगम बाज़ ना आईं।
“तुम मेरा मतलब नहीं समझे। मैं पूछता हूँ कि क्या पहले ये बातें नहीं होती थीं। तुमने तो बादशाही की सत्रहवीं बय्या देखी है। आख़िर हम भी तो सुनें उस वक़्त उस मेले का क्या रंग था।”“पच्चास पचपन बरस की बातें हैं। पूरी पूरी तो कहाँ याद। दूसरे अपने होश में ग़दर से पहले की एक ही सत्रहवीं मैंने देखी भी थी, हाँ कुछ आँखों देखे और कुछ कानों सुने हालात मिलाकर सुनाता हूँ। सबसे पहले दरगाह में मशाइख़ जमा होते थे। सत्रहवीं की रात शहर के अक़ीदतमंद पहुँच गए। अव़्वल ख़त्म हुआ, रात का वक़्त, क़ंदीलें रौशन, अल्लाह वालों का मजमा, बरकात की बारिश, वो समां देखने के क़ाबिल होता था। काले से काले दिल नूर से भर जाते थे। फिर क़व्वाली शुरू हुई। साफ़ सुथरे अह्ल-ए-दिल कव्वालों की टोलियां, दर्द भरी आवाज़ें, अल्लाह हू के ज़मज़मे, फ़ारसी उर्दू, भाषा का कलाम जिससे पत्थर मोम हो जाए। इंसान का क्या बूता है कि चुप बैठा रहे। जिसको देखो लोटन कबूतर। रात फिर ये हू हक़ रही। सुबह को बादशाह आए। सर झुकाए हुए मोअद्दब, दस्त-बस्ता, पीछे पीछे अमीर, वज़ीर, शाहज़ादे नीची निगाहें। ख़ामोश। दरगाह में फ़ातिहा पढ़ी। चार अशर्फ़ियां और बत्तीस रुपये नज़र चढ़ाई। दो सौ रुपये उर्स की नियत के खादिमों को दिए, ख़त्म में शिरकत की। इतने में ख़ादिम तबर्रुक की हंडियां और फेटने लाए। हुज़ूर ने सर झुका कर फेटना बंधवाया, हंडिया चोबदार ने संभालीं और एक अशर्फ़ी तबर्रुक की देकर सवार हो गए।”
हर एक चोबदार ने खींची हमारी खालहर दौर के जुलूस का नक़्क़ारा हम हुए
कब चोबदार पर हों सर-अफ़राज़ देखिएउस शोख़ की निगाह में आए हुए तो हैं
सदा तुम्हारे घर वो आएँभौंकत हैं पर कुत्ते नाहीँ
"ये हिमाक़त की तुम ने, इस फूल को ले कर यहाँ घुस पड़े। तुम्हें जहाँ ये फूल ले कर जाना चाहिये ये वो जगह नहीं।"ये कह कर वो इस्तीफ़ को अपने साथ एक दूसरे दरवाज़े पर ले गया और वहाँ के चोब-दार को आवाज़ दे कर कहा,
हज़ार बार वो बैठा हज़ार बार उठाबचा न शहर में कुछ भी तो चोबदार उठा
جنبش مکن۔۔۔ ہوشیار باش۔۔۔ نگاہ روبرو۔۔۔!شہنشاہ معظم تشریف لاتے ہیں۔۔۔!
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