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ग़ज़ल
जल्वा-ए-साग़र-ओ-मीना है जो हमरंग-ए-बहार
रौनक़ें तुर्फ़ा तरक़्क़ी पे हैं मय-ख़ानों की
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
फिर मय-ए-तल्ख़ से भर साग़र-ओ-मीना-ए-ग़ज़ल
ख़ाली-अज़-नश्शा है इक 'उम्र से सहबा-ए-ग़ज़ल
बशीर फ़ारूक़
शेर
बहार आते ही टकराने लगे क्यूँ साग़र ओ मीना
बता ऐ पीर-ए-मय-ख़ाना ये मय-ख़ानों पे क्या गुज़री
जगन्नाथ आज़ाद
शेर
जलवा-ए-रुख़सार-ए-साक़ी साग़र-ओ-मीना में है
चाँद ऊपर है मगर डूबा हुआ दरिया में है
मुज़्तर ख़ैराबादी
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ग़ज़ल
आज की इस ज़िंदगी के तेज़-रौ तूफ़ान में
वक़्त-ए-ज़िक्र-ए-साग़र-ओ-मीना-ओ-पैमाना गया
जयकृष्ण चौधरी हबीब
ग़ज़ल
अगर कुछ काम आती इस्तिलाह-ए-साग़र-ओ-मीना
तो मेरी तिश्नगी ने मुझ को बहकाया नहीं होता