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नज़्म
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थी तो मौजूद अज़ल से ही तिरी ज़ात-ए-क़दीम
फूल था ज़ेब-ए-चमन पर न परेशाँ थी शमीम
अल्लामा इक़बाल
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तंज़-ओ-मज़ाह
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
शैख़-ए-ज़माँ क़दीम रविश के बुज़ुर्ग हैं
कितना बड़ा है गुम्बद-ए-दस्तार देखना
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
तंज़-ओ-मज़ाह
फिर आया वो ज़माना जो जहां में जाम-ए-जम निकले हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की...