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ग़ज़ल
दुनिया का होशियार बड़ा ज़ी-शुऊर था
जब तक मिरे कहे में दिल-ए-ना-सुबूर था
मिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी
ग़ज़ल
ज़ी-शु'ऊर उस में कहाँ अहल-ए-जुनूँ जीतते हैं
इब्तिदा होती है जिस खेल की अंजाम के बा'द
चाँद ककरालवी
ग़ज़ल
'फ़ाइक़' मिरे मज़ाक़ में बे-माएगी सही
दाद-ए-सुख़न-तलब हूँ मगर ज़ी-शुऊर से