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ग़ज़ल
जो उट्ठे हैं तो गर्म-ए-जुस्तुजू-ए-दोस्त उट्ठे हैं
जो बैठे हैं तो महव-ए-आरज़ू-ए-यार बैठे हैं
आज़ाद अंसारी
ग़ज़ल
तुम्हें मैं चूम लूँ छू लूँ ज़रा इक शर्म है वर्ना
ये सारी जुस्तुजुएँ हद्द-ए-इम्कानी में रहती हैं
आशू मिश्रा
ग़ज़ल
कभी उट्ठे तो गर्म-ए-जुस्तुजू-ए-दोस्त में उट्ठे
कभी बैठे तो महव-ए-आरज़ू-ए-यार बैठे हैं
अल-हाज अल-हाफीज़
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नज़्म
कभी कभी
कि तू नहीं तिरा ग़म तेरी जुस्तुजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे