aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "डाँट"
मीराजी
1912 - 1949
शायर
ज़ाहिद डार
1936 - 2021
उमर आलम
born.2001
आसिफ़ डार
डाॅ सय्यदा शगुफ्ता गज़ल
डाॅ. नूर-उल-अमीन
born.1977
लेखक
शब्बीर अहमद डार
उर्दू सुख़न डाट काम, पाकिस्तान
पर्काशक
डाॅ. कुर्रतुलऐन ताहिरा
डाॅ. अमानुल्लाह एम.बी
डाॅ. शबीब रिज़्वी
डा. शमा प्रवीन
डा. अब्दुल-जब्बार
डाॅ. शाइसता परवीन
मोहम्मद अशरफ़ डार
संपादक
देर तक वो ख़ामोश रही। देर तक मैं ख़ामोश रहा। फिर वो आप ही आप हंसी, बोली “अब्बा मेरे पगडंडी के मोड़ तक मेरे साथ आए थे, क्यों कि मैंने कहा, मुझे डर लगता है। आज मुझे अपनी सहेली रज्जो के घर सोना है, सोना नहीं जागना है। क्योंकि बादाम...
मोहसिन ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगा कर कहा, “अच्छा तुम्हारा दस्त-पनाह पानी तो नहीं भर सकता। हामिद ने दस्त-पनाह को सीधा कर के कहा कि ये भिश्ती को एक डाँट पिलाएगा तो दौड़ा हुआ पानी ला कर उसके दरवाज़े पर छिड़कने लगेगा। जनाब इससे चाहे घड़े मटके और कूँडे...
मौलवी से डाँट खा कर अहल-ए-मकतबफिर उसी आयात को दोहराने लगे हैं
बस्ता अपनी जगह पर रखने और कोट उतारने के बाद वो बावर्चीख़ाने में अपनी माँ के पास बैठ गया और दरबारी की सरगम सुनता रहा जिसमें कई दफ़ा सारे गामा आता था। उसकी माँ पालक काट रही थी। पालक काटने के बाद उसने सब्ज़-सब्ज़ पत्तों का गीला-गीला ढेर उठा कर...
उससे खाती थी, उससे पीती थी। उसके साथ सिनेमा जाती थी। सारा सारा दिन उसके साथ जुहू पर नहाती थी। लेकिन जब वो बाँहों और होंटों से कुछ और आगे बढ़ना चाहता तो वो उसे डांट देती। कुछ इस तौर पर उसे घुडकती कि उसके सारे वलवले उसकी दाढ़ी और...
डाँटڈانٹ
rebuke
Ayurvedic Jadi Bootiyan
डा. जगन्नाथ
आयुर्वेद
Lectures Kent Materia Medica
डाॅ. जे. टी. केन्ट
Feb 1950
शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी और उन की इल्मी ख़िदमात
डॉ. सुरैया डार
आलोचना
Sir Syed Ke Mukhalifeen
डा. वसीम राशिद
Aao English Sikhen
डाॅ. मोहम्मद इहतेशामुद्दीन खुर्रम
Hamasr Khwateen Afsana Nigar
डाॅ. शाजिया कमाल
अफ़साना तन्क़ीद
Articles On Iqbal
बशीर अहमद डार
शायरी तन्क़ीद
Jadeed Rahnuma-e-Adviya Mukammal
Ahmad Faraz Ki Shairi Ka Tanqeedi Jaiza
डाॅ. आफ़ताब अरशी
भाषा एवं साहित्य
Ifadat-e-Homeopathy
डाॅ. एम. आफ़ाक़ सिद्दीक़ी
Jadeed Arabi Adab Aur Adabi Tahreekat
डाॅ. अबू उबैद
लेटरस अाफ़ इक़बाल
अनुवाद
Dard Ka Shahr
नज़्म
Jadeed Rahnuma-e-Adviya
तिब्ब-ए-यूनानी
Meer Mehdi Majrooh : Hayat Aur Tasneef
डाॅ. मोहम्मद फ़िरोज़
घर में बूढ़ा बाप रह गया था और छोटे बहन-भाई। छोटी दुलारी तो हर वक़्त भाभी की ही बग़ल में घुसी रहती। गली-महल्ले की कोई औरत दुल्हन को देखे या न देखे। देखे तो कितनी देर देखे। ये सब उसके इख़्तियार में था। आख़िर ये सब ख़त्म हुआ और आहिस्ता-आहिस्ता...
मिर्ज़ा बुज़दिल भी बहुत थे। एक मर्तबा सड़क पर राहज़न का सामना हो गया तो उसे देखते ही दुम दबा कर भाग निकले लेकिन दौड़ धूप के बावजूद पकड़े गए। अब सितम ज़रीफ़ बट मार ने डाँट कर कहा, “कम्बख़्त हमें इस क़दर दौड़ाया है, ले अब ज़रा पांव दाब।”...
महालक्ष्मी के स्टेशन के उस पार लक्ष्मी जी का एक मंदिर है। उसे लोग रेस कोर्स भी कहते हैं। उस मंदिर में पूजा करने वाले हारते ज़ियादा हैं जीतते बहुत कम हैं। महालक्ष्मी स्टेशन के उस पार एक बहुत बड़ी बद-रौ है जो इंसानी जिस्मों की ग़लाज़त को अपने मुतअफ़्फ़िन...
बहतेरा जी चाहा कि इस दफ़ा उनसे पूछ ही लूं कि क़िबला कुनैन अगर आपको बरवक़्त इत्तिला करा देता तो आप मेरे मलेरिया का क्या बिगाड़ लेते?” उनकी ज़बान इस क़ैंची की तरह है जो चलती ज़्यादा है और काटती कम। डाँटने का अंदाज़ ऐसा है जैसे कोई कौदन लड़का...
आशा सैर करने गई लेकिन उमंग से नहीं जो मा’मूली सारी पहने हुए थी, वही पहने चल खड़ी हुई। न कोई नफ़ीस साड़ी न कोई मुरस्सा’ ज़ेवर, न कोई सिंगार जैसे बेवा हो। ऐसी ही बातों से लाला जी दिल में झुँझला उठते थे। शादी की थी ज़िंदगी का लुत्फ़...
बाद अज़ां सब बच्चे मिल कर अंधा भैंसा खेलने। बिलआख़िर उनकी अम्मी को मुदाख़िलत करना पड़ी, “कम बख़्तो! अब तो चुप हो जाओ! क्या घर को भी स्कूल समझ रखा है?” चंद मिनट बाद किसी शीरख़्वार के दहाड़ने की आवाज़ आई मगर जल्द ही ये चीख़ें मिर्ज़ा की लोरियों में...
घर में मालकिन के बाद भंगन की हुकूमत थी। मोहरियाँ, मेहराजन, मज़दूरनें सब उसका रौब मानती थीं। यहाँ तक कि ख़ुद बहूजी उससे दब जाती थी। एक-बार तो उसने महेश नाथ को भी डाँटा था। हंस कर टाल गए। बात चली थी भंगियों की। महेश नाथ ने कहा था दुनिया...
जब एम्पायर ने मिर्ज़ा को टोपी पहनाने की कोशिश की तो वो एक इंच तंग हो चुकी थी इसके बावजूद मिर्ज़ा ख़ूब जम कर खेले और ऐसा जम के खेले कि उनकी अपनी टीम के पांव उखड़ गए। इस इजमाल पुरमलाल की तफ़सील ये है कि जैसे ही उनका साथी...
फिर उन्होंने आलाँ को डाँटा मगर उस डाँट में ग़ुस्सा नहीं था। “लो...! अब परली तरफ़ देखो!” और वो मुस्कुराती हुई एक तरफ़ घूम गई और सामने देखने लगी, सामने मैं बैठा था। मुझे देखते ही वो दुपट्टे का पल्लू आधे सर पर से खींच कर माथे तक ले आई...
आशिक़ी कुछ किसी की ज़ात नहीं मक़बरे का बाग़ मेरी निगरानी में था। मेरे रहने का मकान भी बाग़ के अहाते ही में था। मैंने अपने बंगले के सामने चमन बनाने का काम नामदेव के सपुर्द किया। मैं अंदर कमरे में काम करता रहता था। मेरी मेज़ के सामने बड़ी...
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