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नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
'ज़रयून' को आ के सुला क्यूँ न जा''
तुम्हारे ब्याह में शजरा पढ़ा जाना था नौशा वास्ती दूल्हा
जौन एलिया
मर्सिया
और पूछा कि दूलहा तिरा क्यूँ साथ न आया
अफ़सोस चची ने तुझे मेहमाँ न बुलाया
मिर्ज़ा सलामत अली दबीर
हास्य
कि छोटी को भी उल्फ़त उस से होगी बरमला होगी
वो अपने होने वाले दूल्हा-भाई पे फ़िदा होगी
ज़रीफ़ जबलपूरी
नज़्म
मुफ़्लिसी
माँ पीछे एक मैली चदर ओढ़े जाती है
बेटा बना है दूल्हा तो बावा बराती है
नज़ीर अकबराबादी
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नअत
उस हाशमी दूल्हा पर कौनैन को मैं वारूँ
जो हुस्न-ओ-शमाइल में यकता-ए-ज़माना है
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
शेर
एक भी ख़्वाहिश के हाथों में न मेहंदी लग सकी
मेरे जज़्बों में न दूल्हा बन सका अब तक कोई
इक़बाल साजिद
तंज़-ओ-मज़ाह
मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी
तंज़-ओ-मज़ाह
3-दूल्हा कब बनेगा और दुल्हन कब ब्याह कर लाएगा? इसमें शर्माने की ज़रूरत नहीं। 4-हम कब बुड्ढे होंगे?...