चौथी का जोड़ा
स्टोरीलाइन
एक बेवा औरत और उसकी दो जवान यतीम बेटियाँ। जवान बेटियों के लिए बेवा को उम्मीद है कि वह भी किसी दिन अपनी बच्चियों के लिए चौथी का जोड़ा तैयार करेगी। उसकी यह उम्मीद एक वक़्त परवान भी चढ़ती है, जब उसका भतीजा नौकरी के सिलसिले में उसके पास आ कर कुछ दिन के लिए ठहरता है। लेकिन जब यह उम्मीद टूटती है तो चौथी का वह जोड़ा जिसे वह अपनी जवान बेटी के लिए तैयार करने के सपने देखती थी वह बेटी के कफ़न में बदल जाता है।
सहदरी के चौके पर आज फिर साफ़-सुथरी जाज़िम बिछी थी। टूटी-फूटी खपरैल की झिर्रियों में से धूप के आड़े तिरछे क़त्ले पूरे दालान में बिखरे हुए थे। महल्ले-टोले की औरतें ख़ामोश और सहमी हुई सी बैठी थीं। जैसे कोई बड़ी वारदात होने वाली हो। माँओं ने बच्चे छातियों से लगा लिए थे। कभी-कभी कोई मेहनती सा चिड़चिड़ा बच्चा रसद की कमी की दुहाई देकर चिल्ला उठता।
“नाईं-नाईं मेरे लाल!”, दुबली पतली माँ उसे अपने घुटने पर लिटा कर यूँ हिलाती जैसे धान मिले चावल धूप में पटक रही हो। और फिर हुंकारे भर कर ख़ामोश हो जाता।
आज कितनी आस भरी निगाहें कुबरा की माँ के मुतफ़क्किर चेहरे को तक रही थीं, छोटे अर्ज़ की टोल के दो पाट तो जोड़ लिए गए थे, मगर अभी सफ़ेद गज़ी का निशान ब्योंतने की किसी को हिम्मत न पड़ी थी। काट-छाँट के मुआ”मले में कुबरा की माँ का मर्तबा बहुत ऊँचा था। उनके सूखे-सूखे हाथों ने न जाने कितने जहेज़ सँवारे थे, कितने छटी-छोछक तैयार किए थे और कितने ही कफ़न ब्योंते थे। जहाँ कहीं महल्ले में कपड़ा कम पड़ जाता और लाख जतन पर भी ब्योंत न बैठी, कुबरा की माँ के पास केस लाया जाता। कुबरा की माँ कपड़े की कान निकालतीं, कलफ़ तोड़तीं, कभी तिकोन बनातीं, कभी चोखुँटा करतीं और दिल ही दिल में क़ैंची चला कर आँखों से नाप तौल कर मुस्कुरा पड़तीं।
“आस्तीन के लिए घेर तो निकल आएगा, गिरेबान के लिए कतरन मेरी बुक़ची से ले लो”, और मुश्किल आसान हो जाती। कपड़ा तराश-कर्दा कतरनों की पिंडी बना कर पकड़ा देतीं।
पर आज तो सफ़ेद गज़ी का टुकड़ा बहुत ही छोटा था और सबको यक़ीन था कि आज तो कुबरा की माँ की नाप तौल हार जाएगी, जब ही तो सब दम साधे उनका मुँह तक रही थीं। कुबरा की माँ के पुर इस्तिक़्लाल चेहरे पर फ़िक्र की कोई शक्ल न थी, चार गिरह गज़ी के टुकड़े को वो निगाहों से ब्योंत रही थीं। लाल टोल का अ'क्स उनके नीलगूँ ज़र्द चेहरे पर शफ़क़ की तरह फूट रहा था। वो उदास-उदास गहरी झुर्रियाँ अँधेरी घटाओं की तरह एक दम उजागर हो गईं, जैसे घने जंगल में आग भड़क उठी हो, और उन्होंने मुस्कुरा कर क़ैंची उठा ली।
महल्ले वालियों के जमघटे से एक लंबी इत्मीनान की साँस उभरी। गोद के बच्चे भी ठसक दिए गए। चील जैसी निगाहों वाली कुँवारियों ने चम्पा-चम्प सूई के नाकों में डोरे पिरोए, नई ब्याही दुल्हनों ने अंगुश्ताने पहन लिए। कुबरा की माँ की क़ैंची चल पड़ी थी।
सहदरी के आख़िरी कोने में पलंगड़ी पर हमीदा पैर लटकाए हथेली पर ठोढ़ी रखे कुछ सोच रही थी।
दोपहर का खाना निमटा कर उसी तरह बी अम्माँ सहदरी की चौकी पर जा बैठती हैं और बुक़ची खोल कर रंग-बिरंगे कपड़ों का जाल बिखेर दिया करती हैं। कूँडी के पास बैठी माँझती हुई कुबरा कनखियों से उन लाल कपड़ों को देखती तो एक सुर्ख़ झपकी उस ज़र्दी-माइल मटियाए रंग में लपक उठती। रुपहली कटोरियों के जाल जब पोले-पोले हाथों से खोल कर अपने ज़ानुओं पर फैलातीं तो उनका मुरझाया हुआ चेहरा एक अ'जीब अरमान भरी रौशनी से जगमगा उठता। गहरी संदूक़ों जैसी शिकनों पर कटोरियों का अ'क्स नन्ही-नन्ही मशा'लों की तरह जगमगाने लगता। हर टाँके पर ज़री का काम हिलता और मिशअ’लें कपकपा उठतीं।
याद नहीं कब उसके शबनमी दुपट्टे बने, टके तैयार हुए और गाड़ी के भारी क़ब्र जैसे संदूक़ की तह में डूब गए। कटोरियों के जाल धुँदला गए। गंगा-जमुनी किरनें माँद पड़ गईं। तूली के लच्छे उदास हो गए मगर कुबरा की बरात न आई। जब एक जोड़ा पुराना हो जाता तो उसे चाले का जोड़ा कह कर सैंत दिया जाता और फिर एक नए जोड़े के साथ नई उम्मीदों का इफ़्तिताह हो जाता। बड़ी छानबीन के बा'द नई दुल्हन छाँटी जाती। सहदरी के चौके पर साफ़ सुथरी चादर बिछती। महल्ले की औरतें हाथ में पानदान और बग़लों में बच्चे दबाए झाँझें बजाती आन पहुँचतीं।
“छोटे कपड़े की गोंट तो उतर आएगी, पर बच्चियों का कपड़ा न निकलेगा।”
“लो बुआ लो और सुनो। तो क्या निगोड़ मारी टोल की चूलें पड़ेंगी?” और फिर सब के चेहरे फ़िक्रमंद हो जाते। कुबरा की माँ ख़ामोश कीमियागर की तरह आँखों के फीते से तूल-ओ-अर्ज़ नापती और बीवियाँ आपस में छोटे कपड़े के मुतअ'ल्लिक़ खुसर-फुसर कर के क़हक़हा लगातीं। ऐसे में कोई मनचली कोई सुहाग या बन्ना छेड़ देती। कोई और चार हाथ आगे वाली समधनों को गालियाँ सुनाने लगती, बेहूदा गंदे मज़ाक़ और चुहलें शुरू' हो जातीं। ऐसे मौक़ों पर कुँवारी बालियों को सहदरी से दूर सर ढाँक कर खपरैल में बैठने का हुक्म दे दिया जाता और जब कोई नया क़हक़हा सहदरी से उभरता तो बे-चारियाँ एक ठंडी साँस भर कर रह जातीं। “अल्लाह! ये क़हक़हे उन्हें ख़ुद कब नसीब होंगे?”
इस चहल-पहल से दूर कुबरा शर्म की मारी मच्छरों वाली कोठरी में सर झुकाए बैठी रहती। इतने में कतर ब्योंत निहायत नाज़ुक मरहले पर पहुँच जाती। कोई कली उल्टी कट जाती और उसके साथ बीवियों की मत भी कट जाती। कुबरा सहम कर दरवाज़े की आड़ से झाँकती।
यही तो मुश्किल थी। कोई जोड़ा अल्लाह मारा चैन से न सिलने पाया। जो कली उल्टी कट जाए तो जान लो नाइन की लगाई हुई बात में ज़रूर कोई अड़ंगा लगेगा। या तो दूल्हा की कोई दाश्ता निकल आएगी या उसकी माँ ठोस कड़ों का अड़ंगा बाँधेगी, जो गोट में कान आ जाए तो समझ लो या तो मेहर पर बात टूटेगी या भरत के पायों के पलंग पर झगड़ा होगा। चौथी के जोड़े का शगुन बड़ा नाज़ुक होता है। बी अम्माँ की सारी मश्शाक़ी और सुघड़ापा धरा रह जाता। न जाने ऐ’न वक़्त पर क्या हो जाता कि धनिया बराबर बात तूल पकड़ जाती। बिसमिल्लाह के ज़ोर से सुघड़ माँ ने जहेज़ जोड़ना शुरू' कर दिया था। ज़रा सी कतरन भी बचती तो तीले दानी या शीशी का ग़िलाफ़ सी कर धनक गोखरु से सँवारकर रख देतीं। लड़की का क्या है खीरे-ककड़ी की तरह बढ़ती है। जो बरात आ गई तो यही सलीक़ा काम आएगा।
और जब से अब्बा गुज़रे। सलीक़े का भी दम फूल गया। हमीदा को एक दम अब्बा याद आ गए। अब्बा कितने दुबले-पुतले लंबे जैसे मुहर्रम का अ’लम। एक-बार झुक जाते तो सीधे खड़ा होना दुश्वार था। सुब्ह ही सुब्ह उठकर नीम की मिसवाक तोड़ लेते और हमीदा को घुटने पर बिठा कर न जाने क्या सोचा करते। फिर सोचते-सोचते नीम की मिसवाक का कोई फूँसड़ा हलक़ में चला जाता और वो खाँसते ही चले जाते। हमीदा बिगड़ कर उनकी गोद से उतर आती। खाँसी के धक्कों से यूँ हिल-हिल जाना उसे क़तई पसंद न था। उसके नन्हे से ग़ुस्से पर वो हँसते और खाँसी सीने में बे-तरह उलझती जैसे गर्दन कटे कबूतर फड़फड़ा रहे हों। फिर भी अम्माँ आकर उन्हें सहला देतीं। पीठ पर धप-धप हाथ मारतीं।
“तौबा है, ऐसी भी क्या हँसी?”
उच्छू के दबाव से सुर्ख़ आँखें ऊपर उठा कर अब्बा बे-कसी से मुस्कुराते। खाँसी तो रुक जाती मगर वो देर तक बैठे हाँपा करते।
“कुछ दवा-दारू क्यों नहीं करते? कितनी बार कहा तुमसे?”
“बड़े शिफ़ा-ख़ाने का डाक्टर कहता है सूईयाँ लगवाओ और रोज़ तीन पाव दूध और आधी छटाँक मक्खन।”
“ऐ ख़ाक पड़े इन डाक्टरों की सूरत पर। भला एक तो खाँसी है ऊपर से चिकनाई। बलग़म न पैदा कर देगी। हकीम को दिखाओ किसी को।”
“दिखाऊँगा।”, अब्बा हुक़्क़ा गुड़गुड़ाते और फिर उच्छू लगता।
“आग लगे इस मुए हुक़्क़े को। इसी ने तो ये खाँसी लगाई है। जवान बेटी की तरफ़ भी देखते हो आँख उठा कर।”
और अब्बा कुबरा की जवानी की तरफ़ रहम-तलब निगाहों से देखते। कुबरा जवान थी। कौन कहता था कि जवान थी। वो तो जैसे बिसमिल्लाह के दिन से ही अपनी जवानी की आमद की सुनावनी सुनकर ठिठक कर रह गई थी। न जाने कैसी जवानी आई थी कि न तो उसकी आँखों में किरनें नाचीं न उसके रुख़्सारों पर ज़ुल्फ़ें परेशान हुईं न उसके सीने पर तूफ़ान उठे, कभी सावन-भादो की घटाओं से मचल-मचल कर प्रीतम या साजन माँगे। वो झुकी-झुकी सहमी-सहमी जवानी जो न जाने कब दबे-पाँव उस पर रेंग आई, वैसे ही चुप-चाप न जाने किधर चल दी। मीठा बरस नमकीन हुआ और फिर कड़वा हो गया।
अब्बा एक दिन चौखट पर औंधे मुँह गिरे और उन्हें उठाने के लिए किसी हकीम या डाक्टर