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ग़ज़ल
सब्ज़ बाग़ आता है दुनिया का नज़र जब 'रा'ना'
याद आती है बहुत हसरत-ए-शद्दाद मुझे
मर्दान अली खां राना
ग़ज़ल
फ़ख़्र से बज़्म-ए-बुताँ में वो कहा करते हैं
प्यार कुछ रोज़ से अब करते हैं 'रा'ना' मुझ को
मर्दान अली खां राना
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ग़ज़ल
आख़िर मिरी तुर्बत से उगी है गुल-ए-नर्गिस
क्या बाद-ए-फ़ना हसरत-ए-दीदार निकाली
मर्दान अली खां राना
ग़ज़ल
राना जगी
ग़ज़ल
सब पर गुल-ए-रा'ना की तो होती है नवाज़िश
क्या मेरे मुक़द्दर के लिए ख़ार बहुत हैं
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
ग़ज़ल
है तंग-दस्तियों के सबब ज़ो'फ़ इस क़दर
सब की हैं आँखें नर्गिस-ए-बीमार आज-कल
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
नर्गिस-ए-मस्ताना में कैफ़ियत-ए-जाम-ए-शराब
क़ामत-ए-राना पे आलम मिस्रा-ए-उस्ताद का