aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "नहाती"
इबन-ए-नशाती
died.1655
लेखक
ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़तू नहाती है अब भी बान में क्या
तुम्हारी सुब्ह जाने किन ख़यालों से नहाती होतुम्हारी शाम जाने किन मलालों से निभाती हो
रब्बो को घर का और कोई काम न था बस वो सारे वक़्त उनके छप्पर खट पर चढ़ी कभी पैर, कभी सर और कभी जिस्म के दूसरे हिस्से को दबाया करती थी। कभी तो मेरा दिल हौल उठता था जब देखो रब्बो कुछ न कुछ दबा रही है, या मालिश कर रही है। कोई दूसरा होता तो न जाने क्या होता। मैं अपना कहती हूँ, कोई इतना छुए भी तो मेरा जिस्म सड़-गल के ख़त्म हो जाए।और फिर ये रोज़-रोज़ की मालिश काफ़ी नहीं थी। जिस रोज़ बेगम जान नहातीं। या अल्लाह बस दो घंटा पहले से तेल और ख़ुशबूदार उबटनों की मालिश शुरू हो जाती और इतनी होती कि मेरा तो तख़य्युल से ही दिल टूट जाता। कमरे के दरवाज़े बंद कर के अंगीठियाँ सुलगतीं और चलता मालिश का दौर और उमूमन सिर्फ़ रब्बो ही रहती। बाक़ी की नौकरानियाँ बड़बड़ाती दरवाज़े पर से ही ज़रूरत की चीज़ें देती जातीं।
उसने उन लड़कियों में से एक को मुंतख़ब करना चाहा... देर तक वो ग़ौर करता रहा... एक लड़की बड़ी शरीर थी... दूसरी उससे कम। उसने सोचा शरीर अच्छी रहेगी जो उसको शरारतों का सबक़ दे सके।ये शरीर लड़की ख़ूबसूरत थी, उसके बदन के आज़ा भी बहुत मुनासिब थे। बारिश में नहाती जलपरी मालूम होती थी। थोड़ी देर के लिए तनवीर शायर बन गया। उसने कभी इस तौर पर नहीं सोचा था। लेकिन उस लड़की ने जिसका कुरता दूसरी के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा महीन था, उसको ऐसे ऐसे शेर याद करा दिए जिनको अर्सा हुआ भूल चुका था।
उससे खाती थी, उससे पीती थी। उसके साथ सिनेमा जाती थी। सारा सारा दिन उसके साथ जुहू पर नहाती थी। लेकिन जब वो बाँहों और होंटों से कुछ और आगे बढ़ना चाहता तो वो उसे डांट देती। कुछ इस तौर पर उसे घुडकती कि उसके सारे वलवले उसकी दाढ़ी और मूंछों में चक्कर काटते रह जाते।त्रिलोचन को पहले किसी के साथ मोहब्बत नहीं होती थी। लाहौर में, बर्मा में, सिंगापुर में वो लड़कियां कुछ अर्से के लिए ख़रीद लिया करता था। उसके वहम-ओ-गुमान में भी ये बात नहीं थी कि बम्बई पहुंचते ही वो एक निहायत अल्हड़ क़िस्म की यहूदी लड़की के इश्क़ में गोडे गोडे धँस जाएगा।
नहातीنہاتی
would've taken bath, showered
Phool Ban
मसनवी
Phoolban
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ख़ुशबू में नहाते रंग
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ओस नहायी रात
नरेंद्र शर्मा
वापस आ के वो नहाती है और अपनी साड़ी धोती है और सुखाने के लिए पुल के जंगले पर डाल देती है और फिर एक बेहद ग़लीज़ और पुरानी धोती पहन कर खाने पकाने में लग जाती है। शांता बाई के घर चूल्हा उस वक़्त सुलग सकता है जब दूसरों के हाँ चूल्हे ठण्डे हो जाएँ। यानी दोपहर को दो बजे और रात के नौ बजे। इन औक़ात में इधर और उधर से दोनों वक़्त घर से बाहर बर्तन माँझने और पानी ढोने का काम करना होता है। अब तो छोटी लड़की भी उसका हाथ बटाती है। शांता बाई बर्तन साफ़ करती है। छोटी लड़की बर्तन धोती जाती है। दो तीन बार ऐसा हुआ कि छोटी लड़की के हाथ से चीनी के बर्तन गिर कर टूट गए।
सुख जैसे बादलों में नहाती हूँ बिजलियाँदुख जैसे बिजलियों में ये बादल नहा लिए
ये कह कर उसने पानी में एक डुबकी लगाई और फिर लहरों में फूटते हुए बुलबलों की अफ़्शां सी नहाती हुई किनारे के क़रीब आगई। बोली, “परे हट जाओ और वो धोती मुझे देदो।”मैंने कहा, “एक शर्त पर।”
सुनते हैं अब उन गलियों में फूल शरारे खिलते हैंख़ून की होली खेल रही हैं रंग नहाती दो-पहरें
“मैं तो हमेशा साफ़-सुथरा रहता हूँ। तुमने कई मर्तबा इसकी तारीफ़ की है। दिन में दो मर्तबा कपड़े बदलता हूँ, सख़्त सर्दी भी हो ग़ुस्ल करता हूँ। तुम तो तीन-चार दिन छोड़ के नहाती हो, तुम्हें पानी से नफ़रत है।”“अजी वाह, मैं तो हर हफ़्ते बाक़ायदा नहाती हूँ।”
लतरी, चोर और चकमा बाज़ होने के इलावा नानी परले दर्जे की झूटी भी थीं। सबसे बड़ा झूट तो उनका वो बुर्क़ा था जो हर-दम उनके ऊपर सवार रहता था। कभी इस बुर्क़े में निक़ाब भी थी। पर जूँ-जूँ मुहल्ला के बड़े बूढ़े चल बसे या नीम अंधे हो गए तो नानी ने निक़ाब को ख़ैरबाद कह दिया। मगर कंगूरों-दार फ़ैशनेबल बुर्क़े की टोपी उनकी खोपड़ी पर चीपकी रहती। आगे चाहे महीन कुरते के...
ठिठुरते पानी में साँसों का नम मिलाते हुएनदी में चाँद के हम-रह नहाती बारिश है
ज़ीनत से एक लड़के को मुहब्बत हो गई। वो उसके घर के क़रीब ही रहता था, बल्कि यूं कहिए कि उसका और ज़ीनत का मकान आमने सामने था। एक दिन उस लड़के ने जिसका नाम जमाल था उसे कोठे पर अपने बाल ख़ुश्क करते देखा तो वो सर-ता-पा मुहब्बत के शर्बत में शराबोर हो गया।ज़ीनत वक़्त की पाबंद थी, सुबह ठीक छः बजे उठती। अपनी बहन के दो बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करती। इसके बाद ख़ुद नहाती और सर पर तौलिया लपेट कर ऊपर कोठे पर चली जाती और अपने बाल जो उसके टखनों तक आते थे, सुखाती कंघी करती और नीचे चली जाती। जूड़ा वो अपने कमरे में करती थी।
वो अबाबील कोई नहाती हुईकोई चील ग़ोते में जाती हुई
ग़ुस्ल के बारे में अब भी मेरा यही ख़याल है, लेकिन जिस पहाड़ी गांव का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ, वहां की फ़िज़ा ही कुछ इस क़िस्म की थी कि जो चीज़ें मुझे अब मुहमल नज़र आती हैं या इससे पहले नज़र आया करती थीं, वहां बामा’नी दिखाई देती थीं... इस ग़ुस्ल ही को लीजिए। उस पहाड़ी गांव में जितना अ’र्सा मैं रहा हर रोज़ मेरा पहला काम ये होता था कि नहाऊँ और देर तक नहाता रहूं।चश्मे पर पहुंच कर मैंने कपड़े उतारे। नेकर पहनी और जब पानी की उस गिरती हुई धार के पास गया जो पत्थरों पर गिर कर नन्हे नन्हे छींटे उड़ा रही थी तो पानी की एक सर्द बूँद मेरी पीठ पर आ पड़ी। मैं तड़प कर एक तरफ़ हट गया। जहां बूँद गिरी थी उस जगह गुदगुदी, परकार की नोक की तरह चुभी और सारे जिस्म पर फैल गई। मैं सिमटा, काँपा और सोचने लगा, मुझे वाक़ई नहाना चाहिए या कि नहीं। क़रीब था कि मैं बाग़ी हो जाऊं लेकिन आस पास निगाह दौड़ाई तो हर शय नहाई हुई नज़र आई, चुनांचे जो बाग़ियाना ख़याल मेरे दिमाग़ में उस शरीर बूँद ने पैदा किए थे ठंडे हो गए।
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