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शेर
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
ऐब ऐ 'रौशन' समझते हैं हुनर कोई हुनर
ना-मुवाफ़िक़ है ज़माना अब कमाल अच्छा नहीं
इनायतुल्लाह रौशन बदायूनी
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ग़ज़ल
हवाएँ तुंद मौसम ना-मुवाफ़िक़ बाग़बाँ बरहम
अजब आलम में रक्खी है नशेमन की बिना मैं ने
एहसान दरबंगावी
ग़ज़ल
नाम रौशन कर के क्यूँकर बुझ न जाता मिस्ल-ए-शम्अ'
ना-मुवाफ़िक़ थी ज़माने की हवा मेरे लिए
मीर अनीस
ग़ज़ल
ना-मुवाफ़िक़ दौर में अपने भी हो जाते हैं ग़ैर
ख़ुश्क मौसम हो तो दीवारों में लग जाती है आग
मुशीर झंझान्वी
ग़ज़ल
रगों में उतरी है जो शय वो ना-मुवाफ़िक़ है
कि सारे जिस्म में काँटे से बो रहा है लहू
अली अकबर अब्बास
नज़्म
वारिस
मगर इस नफ़रत-ए-मानूस की तकरार से उस ने
दुरुश्त ओ ना-मुवाफ़िक़ ज़िंदगी से सुल्ह कर ली थी