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नज़्म
तुम्हारे हुस्न के नाम
निखर गई है कभी सुब्ह दोपहर कभी शाम
कहीं जो क़ामत-ए-ज़ेबा पे सज गई है क़बा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
उस्ताद का डंडा
अण्डा खाने से लहू जिस्म में बढ़ जाता है
चुस्त होता है बदन ज़ेहन निखर जाता है
सय्यदा फ़रहत
नज़्म
रात सुनसान है
चाँदनी खुल के निखर आई है दरवाज़े पर
ओस से भीगते जाते हैं पुराने गमले