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ग़ज़ल
किसी दिन बज़्म-ए-साक़ी से निकाले जाओगे 'क़ैसर'
निभाओगे कहाँ तक ठाठ ये शाहाना रोज़ाना
क़ैसर-उल जाफ़री
ग़ज़ल
दिल की वीराँ नगरी पे अब ग़म के बादल छाए हैं
दुख की काली रात में बोलो कब तक साथ निभाओगे
फ़र्रुख़ ज़ोहरा गिलानी
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ग़ज़ल
है तन्हाई हमें प्यारी यही बख़्शिश है दुनिया की
मोहब्बत के तक़ाज़ों को मगर तुम क्या निभाओगे