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तंज़-ओ-मज़ाह
मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी
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कहानी
दूरर्जनस्थ च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जनः। सर्पो दृशति काले तु दुर्जनस्तु पदे पदे॥...
मुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी
ग़ज़ल
होता है शीशा-ए-दिल चूर उस की गुफ़्तुगू से
यारब ये पंद-ए-नासेह या संग-ए-मोहतसिब है
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
ये तुम्हें हो कि पड़े दग़दग़ा-ए-हश्र में हो
फ़ारिग़-उल-बाल है एक एक क़लंदर वाइज़