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नज़्म
लौह-ओ-क़लम
हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे
जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैं ने
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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क़ितआ
मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैं ने
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
नईम समीर
रुबाई
फ़रमान-ए-अली लौह-ओ-क़लम तक पहुँचा
फ़ज़्ल उन का हर एक ग़म में हम तक पहुँचा
मिर्ज़ा सलामत अली दबीर
ग़ज़ल
सुब्ह-ए-ख़ंदाँ की तरह लौह-ओ-क़लम जागे हैं
जब तिरी ज़ुल्फ़ के ख़म से मिरे ग़म जागे हैं