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नज़्म
कभी कभी
गुज़र रहा हूँ कुछ अन-जानी रहगुज़ारों से
मुहीब साए मिरी सम्त बढ़ते आते हैं
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
अहमद फ़राज़
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शेर
कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत
चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
हसन कूज़ा-गर (2)
खेल इक सादा मोहब्बत का
शब ओ रोज़ के इस बढ़ते हुए खोखले-पन में जो कभी खेलते हैं
नून मीम राशिद
नज़्म
हिण्डोला
वो दिन के बढ़ते हुए साए सह-पहर का सुकूँ
सुकूत शाम का जब दोनों वक़्त मिलते हैं