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शेर
गरचे तुम ताज़ा गुल-ए-गुलशन-ए-रानाई हो
फिर भी ये ऐब है इक तुम में कि हरजाई हो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
कुल्लियात
वो नौ-बावा-ए-गुलशन-ए-ख़ूबी सब से रखे है निराली तरह
शाख़-ए-गुल सा जाए है लहका उन ने नई ये डाली तरह
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
चले थे हम कि सैर-ए-गुलशन-ए-ईजाद करते हैं
कि इतने में अजल आ कर पुकारी याद करते हैं
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
फ़ज़ा-ए-गुलशन-ए-मक़्तल नशात-ए-दीदा-ओ-दिल है
कि जाँ-परवर बहार-ए-सब्ज़ा-ए-शमशीर-ए-क़ातिल है
पंडित त्रिभुवननाथ ज़ुतशी ज़ार देहलवी
नज़्म
गाँधी जी
हर एक फूल को अपने लहू का रंग दिया
बहार-ए-गुलशन-ए-अम्न-ओ-अमाँ थे गाँधी जी
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
ऐ बहार-ए-गुलशन-ए-नाज़-ओ-नज़ाकत हर तरफ़
तेरे आने से हुई है और भी बुस्ताँ में धूम