aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "बैठता"
इससे क़ब्ल उसकी ज़िंदगी में कई लड़कियां आचुकी थीं जो उसके अब्रू के इशारे पर चलती थीं, मगर ये सीमा क्या समझती है अपने आपको, “इसमें कोई शक नहीं कि ख़ूबसूरत है जितनी लड़कियां मैंने अब तक देखी हैं उनमें सब से ज़्यादा हसीन है मगर मुझे ठुकरा देना, ये बहुत बड़ी ज़्यादती है। मैं ज़रूर इससे बदला लूंगा, चाहे कुछ भी हो जाये।” शहज़ादा सलीम ने उससे बदला लेने की कई स्कीमें बनाईं मगर बार-आवर साबित न हुईं। उसने यहां तक सोचा कि उसकी नाक काट डाले। ये वो जुर्म कर बैठता मगर उसे सीमा के चेहरे पर ये नाक बहुत पसंद थी। कोई बड़े से बड़ा मुसव्विर भी ऐसी नाक का तसव्वुर नहीं कर सकता था।
ज़हीर जब थर्ड ईयर में दाख़िल हुआ तो उसने महसूस किया कि उसे इश्क़ हो गया है और इश्क़ भी बहुत अशद क़िस्म का जिसमें अक्सर इंसान अपनी जान से भी हाथ धो बैठता है।वो कॉलिज से ख़ुश ख़ुश वापस आया कि थर्ड ईयर में ये उसका पहला दिन था। जूंही वो अपने घर में दाख़िल होने लगा, उसने एक बुर्क़ापोश लड़की देखी जो टांगे में से उतर रही थी। उसने टांगे में से उतरती हुई हज़ारहा लड़कियां देखी थीं, मगर वो लड़की जिसके हाथ में चंद किताबें थीं, सीधी उसके दिल में उतर गई।
एक दिन मैं और मेरा भाई ठट्ठियाँ के जौहड़ से मछलियाँ पकड़ने की नाकाम कोशिश के बाद क़स्बे को वापस आ रहे थे तो नहर के पूल पर यही आदमी अपनी पगड़ी गोद में डाले बैठा था और उसकी सफ़ेद चुटिया मेरी मुर्ग़ी के पर की तरह उसके सर से चिपकी हुई थी। उसके क़रीब से गुज़रते हुए मेरे भाई ने माथे पर हाथ रख कर ज़ोर से सलाम किया, "दाऊ जी सलाम" और दाऊ जी ने सर हिला कर जवाब दिय...
सुनार की उंगलियां झुमकों को ब्रश से पॉलिश कर रही हैं। झुमके चमकने लगते हैं, सुनार के पास ही एक आदमी बैठा है, झुमकों की चमक देख कर उसकी आँखें तमतमा उठती हैं। बड़ी बेताबी से वो अपने हाथ उन झुमकों की तरफ़ बढ़ाता है और सुनार कहता है, “बस अब दे दो मुझे।” सुनार अपने गाहक को अपनी टूटी हुई ऐ’नक में से देखता है और मुस्कुरा कर कहता है, “छः महीने से अलमारी में ब...
मैं हैरान तो हुआ कि मिर्ज़ा साहब ने बाइस्किल भेजवा देने में इस क़द्र उज्लत से क्यों काम लिया लेकिन इस नतीजे पर पहुंचा कि आदमी निहायत शरीफ़ और दयानतदार हैं। रूपये ले लिये थे तो बाइस्किल क्यों रोक लेते।नौकर से कहा, "देखो ये औज़ार यहीं छोड़ जाओ और देखो बाइस्किल को किसी कपड़े से ख़ूब अच्छी तरह झाड़ो और ये मोड़ पर जो बाइस्किलों वाला बैठता है उससे जा कर बाइस्किल में डालने का तेल ले आओ और देखो....अबे भागा कहाँ जा रहा है। हम ज़रूरी बात तुम से कह रहे है। बाइस्किल वाले से तेल की एक कुप्पी भी ले आना और जहां-जहां तेल देने की जगह है वहां तेल दे देना और बाइस्किल वाले से कहना कि कोई घटिया सा तेल न दे दे जिस से तमाम पुर्जे़ ही ख़राब हो जाएं। बाइस्किल के पुर्जे़ बड़े नाज़ुक होते हैं और बाइस्किल बाहर निकाल रखो। हम अभी कपड़े पहन कर आते हैं। हम ज़रा सैर को जा रहे हैं और देखो साफ़ कर देना और बहुत ज़ोर ज़ोर से कपड़ा भी मत रगड़ना, बाइस्किल का पॉलिश घिस जाता है।"
बैठताبیٹھتا
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नागपाड़े में जब शाम को पान वाले की दुकान पर बैठता था तो अक्सर ऐक्टर एक्ट्रसों की बातें हुआ करती थीं। क़रीब क़रीब हर ऐक्टर और ऐक्ट्रस के मुतअ’ल्लिक़ कोई न कोई स्कैंडल मशहूर था मगर राजकिशोर का जब भी ज़िक्र आता, शामलाल पनवाड़ी बड़े फ़ख़्रिया लहजे में कहा करता, “मंटो साहब! राज भाई ही ऐसा ऐक्टर है जो लंगोट का पक्का है।”मालूम नहीं शामलाल उसे राज भाई कैसे कहने लगा था। उसके मुतअ’ल्लिक़ मुझे इतनी ज़्यादा हैरत नहीं थी, इसलिए कि राज भाई की मामूली से मामूली बात भी एक कारनामा बन कर लोगों तक पहुंच जाती थी।
जी ख़ुश हुआ है राह को पुरख़ार देखकरमिर्ज़ा बड़े सादा-लौह और साफ़-दिल इंसान थे। अक्सर ऐसी हरकतें कर बैठते जिनका नतीजा उनके हक़ में बहुत बुरा होता था। चुनांचे एक दिन महबूब की गली में बैठे-बैठे किसी ज़रा सी ग़लती पर पासबान से अपनी चिंदिया गंजी कराली, इस वाक़िआ को यूं बयान किया है,
जोगिंदर सिंह के अफ़साने जब मक़बूल होना शुरू हुए तो उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो मशहूर अदीबों और शायरों को अपने घर बुलाए और उनकी दा’वत करे। उसका ख़याल था कि यूं उस की शोहरत और मक़बूलियत और भी ज़्यादा हो जाएगी।जोगिंदर सिंह बड़ा ख़ुशफ़हम इंसान था। मशहूर अदीबों और शायरों को अपने घर बुलाकर और उनकी ख़ातिर तवाज़ो करने के बाद जब वो अपनी बीवी अमृत कौर के पास बैठता तो कुछ देर के लिए बिल्कुल भूल जाता कि उसका काम डाकखाना में चिट्ठियों की देख भाल करना है। अपनी तीन गज़ी पटियाला फ़ैशन की रंगी हुई पगड़ी उतार कर जब वो एक तरफ़ रख देता तो उसे ऐसा महसूस होता कि उसके लंबे लंबे काले गेसूओं के नीचे जो छोटा सा सर छुपा हुआ है उसमें तरक़्क़ी पसंद अदब कूट कूट कर भरा है।
सितम ये था कि बेगम साहिबा भी आए दिन इस मश्ग़ले के ख़िलाफ़ सदा-ए-एहतिजाज बुलंद करती रहती थीं। हालाँकि उन्हें इसके मौक़े मुश्किल से मिलते। वो सोती ही रहती थीं कि उधर बाज़ी जम जाती थी। रात को सो जाती थीं। तब कहीं मिर्ज़ा जी घर में आते थे। हाँ जोलाहे का गु़स्सा दाढ़ी पर उतारा करती थीं, नौकरों को झिड़कियाँ दिया करतीं।“क्या मियाँ ने पान माँगे हैं। कह दो आकर ले जाएँ। क्या पाँव में मेहंदी लगी हुई है। क्या कहा, अभी खाने की फ़ुर्सत नहीं है? खाने ले जाकर सर पर पटक दो। खाएँ या कुत्तों को खिलाएँ, यहाँ उनके इंतिज़ार में कौन बैठा रहेगा…” मगर लुत्फ़ ये था कि उन्हें अपने मियाँ से इतनी शिकायत न थी जितनी मीर साहब से, वो मीर साहब को निखट्टू, बिगाड़ू, टुकड़े-खोर वग़ैरह नामों से याद किया करती थीं। शायद मिर्ज़ा जी भी अपनी प्रीत के इज़हार में सारा इल्ज़ाम मीर साहब ही के सर डाल देते थे।
उनके जाने के बाद मैं वाक़ई महसूस करता हूँ कि बस अब चल-चलाव लग रहा है। सांस लेते हुए धड़का लगा रहता है कि रिवायती हिचकी न आजाए। ज़रा गर्मी लगती है तो ख़्याल होता है कि शायद आख़िरी पसीना है और तबीयत थोड़ी बहाल होती है तो हड़बड़ाकर उठ बैठता हूँ कि कहीं सँभाला न हो।लेकिन मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग का अंदाज़ सबसे निराला है। मैं नहीं कह सकता कि उन्हें मेरी दिलजोई मक़सूद होती है या इसमें उनके फ़लसफ़ा-ए-हयात-ओ-ममात का दख़ल है। बीमारी के फ़ज़ाइल ऐसे दिलनशीन पैराए में बयान करते हैं कि सेहत याब होने को दिल नहीं चाहता, तंदुरुस्ती वबाल मालूम होती है और ग़ुस्ल-ए-सेहत में वो तमाम क़बाहतें नज़र आती हैं, जिनसे ग़ालिब को फ़िक्र-ए-विसाल में दो-चार होना पड़ा कि
जब रोने बैठता हूँ तब क्या कसर रहे हैरूमाल दो दो दिन तक जूँ अब्र तर रहे है
बैठता उठता था मैं यारों के बीचहो गया दीवार दीवारों के बीच
पुतली का रोब सब पे अयाँ है ख़ुदाई मेंबैठा है शेर पंजों को टेके तराई में
मैं आज उस वाक़िए’ का हाल सुनाता हूँ। तुम शायद ये कहो कि मैं अपने आपको धोका दे रहा हूँ। लेकिन तुमने कभी इस बात का तो मुशाहिदा किया होगा कि वो शख़्स जो ज़िंदगी से मुहब्बत करता है कभी-कभी ऐसी हरकतें भी कर बैठता है जिनसे सर्द-मेहरी और ज़िंदगी से नफ़रत टपकती है।इसकी वज्ह ये है कि उसको ज़िंदगी ने कुछ ऐसी ईज़ा पहुँचाई है कि वो ज़िंदगी की ख़्वाहिश को घोंट कर उससे दूर भागने लगता है और अपने गोशा-ए-आफ़ियत में उसकी राहों को भूल जाता है। लेकिन उसकी मुहब्बत कभी मर नहीं सकती और उसकी आग ख़्वाबों के खंडरात की तह में अंदर ही सुलगती रहती है।
तमाम रास्ते मिर्ज़ा साहब चहल-क़दमी फ़रमाते जाते हैं। मैं हर दो तीन लम्हे के बाद अपने आपको उन से चार पांच क़दम आगे पाता हूँ। कुछ देर ठहर जाता हूँ। वो साथ आ मिलते हैं तो फिर चलना शुरू कर देता हूँ। फिर आगे निकल जाता हूँ। फिर ठहर जाता हूँ। ग़रज़ कि गो चलता दुगनी तिगुनी रफ़्तार से हूँ लेकिन पहुँचता उनके साथ ही हूँ।टिकट लेकर अंदर दाख़िल होते हैं तो अंधेरा घुप। बहुतेरा आँखें झपकता हूँ, कुछ सुझाई नहीं देता। उधर से कोई आवाज़ देता है। “ये दरवाज़ा बंद कर दो जी!” या अलल्लाह अब जाऊं कहाँ? रस्ता, कुर्सी, दीवार, आदमी कुछ भी तो नज़र नहीं आता। एक क़दम बढ़ाता हूँ तो सर उन बाल्टियों से जा टकराता है जो आग बुझाने के लिए दीवार पर लटकी रहती हैं। थोड़ी देर के बाद तारीकी में कुछ धुँदले से नक़्श दिखाई देने लगते हैं। जहां ज़रा तारीक तर सा धब्बा दिखाई दे जाये। वहां समझता हूँ ख़ाली कुर्सी होगी। ख़मीदा पुश्त हो कर उसका रुख़ करता हूँ इसके पावँ को फाँद, उसके टखनों को ठुकरा, ख़वातीन के घुट्नों से दामन बचा कर आख़िरकार किसी की गोद में जा कर बैठता हूँ। वहां से निकाल दिया जाता हूँ और लोगों के धक्कों की मदद से किसी ख़ाली कुर्सी तक जा पहुँचता हूँ। मिर्ज़ा साहब से कहता हूँ, “मैं न बकता था कि जल्दी चलो। ख़्वाह-मख़्वाह में हमको रुसवा करवाया न! गधा कहीं का!” इस शगुफ़्ता बयानी के बाद मा’लूम होता है कि साथ की कुर्सी पर जो हज़रत बैठे हैं और जिनको मुख़ातिब कर रहा हूँ वो मिर्ज़ा नहीं कोई और बुज़ुर्ग हैं।
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