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प्रेम कहानी

अहमद अली

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अहमद अली

MORE BYअहमद अली

    स्टोरीलाइन

    मोहब्बत का इज़हार करना भी उतना ही ज़रूरी है जितना की मोहब्बत करना है। अगर आप इज़हार नहीं करेंगे तो अपने हाथों अपनी मोहब्बत का क़त्ल कर देंगे। यह कहानी भी एक ऐसे ही क़त्ल की दास्तान है। नायक एक लड़की से बे-पनाह मोहब्बत करता है। एक दिन वह उसके साथ एक साईकिल ट्रिप पर भी जाता है। मौसम बहुत खु़शगवार है लेकिन वह चाहने के बाद भी इज़हार नहीं कर पाता है। उसके इज़हार न करने के कारण लड़की उससे दूर हो जाती है और फिर कभी उसके पास नहीं आती है। हालांकि वह उससे बीच-बीच में मुलाक़ात करती है। मोहब्बत करने और उसका इज़हार न करने पर इंसान की क्या हालत होती है वह आप इस कहानी को पढ़ कर जान सकते हैं।

    मैं आज उस वाक़िए’ का हाल सुनाता हूँ। तुम शायद ये कहो कि मैं अपने आपको धोका दे रहा हूँ। लेकिन तुमने कभी इस बात का तो मुशाहिदा किया होगा कि वो शख़्स जो ज़िंदगी से मुहब्बत करता है कभी-कभी ऐसी हरकतें भी कर बैठता है जिनसे सर्द-मेहरी और ज़िंदगी से नफ़रत टपकती है।

    इसकी वज्ह ये है कि उसको ज़िंदगी ने कुछ ऐसी ईज़ा पहुँचाई है कि वो ज़िंदगी की ख़्वाहिश को घोंट कर उससे दूर भागने लगता है और अपने गोशा-ए-आफ़ियत में उसकी राहों को भूल जाता है। लेकिन उसकी मुहब्बत कभी मर नहीं सकती और उसकी आग ख़्वाबों के खंडरात की तह में अंदर ही सुलगती रहती है।

    चूँकि ख़्वाबों की दुनिया में रहने की वज्ह से वो ज़िंदगी से बे-बहरा हो जाता है, इसलिए अपनी मंज़िल-ए-मक़्सूद के क़रीब पहुँच कर वो ख़ुशी और ग़ुरूर से इस क़दर भर जाता है कि अपनी सब तदबीरों को ख़ुद ही उल्टा कर देता है और इस ख़याल में कि अब तो मा-हसल मिल गया वो अपनी महबूबा को बजाए ख़ुश करने के मुतनफ़्फ़िर कर देता है। बस यही मेरे साथ भी हुआ।

    अब अपनी ज़िंदगी के हालात दोहराने से किया हासिल? ताहम तुम्हें मेरी ज़िंदगी का वो ला-जवाब और सोगवार ज़माना तो याद होगा जब मुझे उससे मुहब्बत थी। मुझे तुम्हारी मुहब्बत भरी तसल्ली-ओ-तशफ़्फ़ी ख़ूब याद है, लेकिन इसके बा-वजूद भी मैं अपने किए को मिटा सका। मैंने मुहब्बत का ख़ून मुहब्बत से कर डाला और हालाँकि मैं उस वक़्त अपने को क़ातिल समझता था मगर अब मुझे अपने जुर्म का यक़ीन है।

    समाज इस क़त्ल को जुर्म क़रार देगा क्योंकि समाज तो अख़्लाक़ी जुर्म पर सज़ा नहीं देता बल्कि समाजी जुर्म पर, निय्यत की बिना पर नहीं बल्कि सबूत पर। लेकिन अख़्लाक़ी जुर्म ही सबसे ख़राब है और मैं अपने को मुहब्बत और ज़िंदगी दोनों की निगाहों में मुजरिम पाता हूँ। मरते दम तक मैं इस मा'सूम ज़मीन पर गुनह-गारों की तरह अपने हम-नवाओं और रफ़ीक़ों से मुँह छुपाता मारा-मारा फिरूँगा। पर अफ़सोस कि मेरा जुर्म मुहब्बत के ख़िलाफ़ था और मुझे मुँह छुपाने को भी जगह नहीं।

    वो अब मर चुकी है इसलिए मुझे हिम्मत हुई कि ये दास्तान कह सुनाऊँ।

    ये तो तुम जानते ही हो कि इसकी शुरूआ'त किस तरह हुई। मैं उससे दिल-ओ-जान से मुहब्बत करता था। उसकी ब-दौलत वो ख़ज़ाना मेरे हाथ लग गया था जिसकी तमन्ना सारे जहान को थी। जहाँ भी वो जाती, चाहे ख़रीदारी करने या अपनी सहेलियों से मिलने, वो मुझको साथ ले जाती और मैं एक रफ़ीक़ कुत्ते की तरह उसके साथ-साथ रहता।

    “भई में अपने गोविंदा को भी साथ लाई हूँ।”, वो दूर ही से चिल्ला कर कहती और मैं ख़ुशी से फूला समाता। मेरी मुहब्बत रेगिस्तानों से ज़ियादा वसीअ’ और समंदरों से ज़ियादा गहरी थी। लेकिन मुझको ऐसा मा'लूम होता कि उसकी मुहब्बत मेरी मुहब्बत से मिलकर एक आ'लम बन गई है जिसमें सितारे भी हैं और दुनियाएँ भी।

    मैं उसी तरह उससे बरसों मुहब्बत करता रहा और बरसों उम्मीद-ओ-यास की मौजें मुझे थपेड़े मारती रहीं। जब मैं सोने लेटता तो उसकी सूरत मेरी आँखों के सामने रक़्स करती और जब सो जाता तो ख़्वाबों में ख़ुश-नुमा पहाड़ और दरिया और लाला-ज़ार दिखाई देते। सुब्ह जब आँख खुलती तो एक सुरीला नग़्मा मेरे कानों में उसके हुस्न की मौसीक़ी अलापने लगता। मुहब्बत के ख़्वाब में वो राहत थी कि मैं दुनिया से परहेज़ करने लगा। वो अकेली मेरी दुनिया थी और मेरी जन्नत और लोग तो उस गुलाब को मसल देते थे जो मेरे दिल की गहराई में खिला हुआ था।

    अपने ख़्वाब को सीने से लगाए मैं तन्हा फिरता और सिर्फ़ परिंदों और नर्म हवा से गुफ़्तगू करता क्योंकि वो मेरे कानों में हज़ारों मुहब्बत के पैग़ाम ला-ला के सुनाते थे। मेरे साथी शफ़क़, चाँद और सितारे थे जो आसमान पर इस तरह बिखर जाते जैसे उसके गालों पर सुर्ख़ी। उसकी मौजूदगी मेरी हस्ती में इस तरह समा गई जैसे माँ के पेट में बच्चा अपने वजूद के एहसास से उसको भर देता है।

    सूरज की गर्मी मेरी मुहब्बत के सामने हेच थी। ख़ुद-ग़रज़ी का ख़याल मेरे दिल में कभी आया क्योंकि मुहब्बत एक हसीन तख़य्युल थी और जिन्स एक बद-नुमा धब्बा। जो सच पूछो तो मुहब्बत ने मुझको ना-मर्द कर दिया था। वो भी अपने दिल में क्या कहती होगी। मैंने इस बात को क़तई’ भुला दिया था कि वो औ'रत है। मैं एक अहमक़ों की जन्नत में रहता था। इसमें शक नहीं कि वो दिल-आवेज़ थी पर मौहूम और ग़ैर-हक़ीक़ी भी। मुहब्बत तो रूह और जिस्म दोनों के एहसासात का संगम है।

    अगर इनमें से एक चीज़ भी कम-ओ-बेश हो जाएगी तो मुहब्बत या तो नफ़्सानी ख़्वाहिशात हो के रह जाती है या एक शाइ'र का ना-मुम्किन ख़्वाब। मगर मैं अभी जवान था और हक़ीक़त से बे-बहरा। एक मर्तबा जब मेरे बेहतरीन दोस्त ने मुझको सलाह दी कि उसको प्यार करो तो मैं बे-आपे हो गया और चाँटा रसीद किया। बरसों तक मैंने उससे बात भी की। हमारा मिलाप उस वक़्त हुआ जब एक रोज़ मैं रंज-ओ-अलम से चूर शराब-ख़ाने में बैठा क़दहे भर-भर कर पी रहा था और आँसुओं की लड़ी आँखों से जारी थी। अगली वफ़ाओं के ख़याल से उसने आकर मेरे शाने पर हाथ रख दिया और हमारे दिल फिर मिल गए।

    हालाँकि ये बात मुझे सही तौर पर कभी मा'लूम हुई लेकिन मुझे यक़ीन है कि वो मुझसे मुहब्बत करती थी। उसके दिल में मेरे लिए जगह थी, मगर मैंने ख़ुद ही मुहब्बत का ख़ात्मा मुहब्बत से कर दिया।

    मार्च की हसीन शाम थी, उसने नई-नई साईकल चलानी सीखी थी और अपनी सहेलियों के साथ घूमने जाती। एक रोज़ मुझसे कहा कि मेरे साथ चलो। ये कह कर उसने मुझको वो शरफ़ बख़्शा जिसे मैं भूल नहीं सकता। तमाम दिन एक ख़्वाब की सी हालत मुझपे तारी रही। मैंने साईकल साफ़ की, तेल डाला और बार-बार जा के देखता कि कहीं हवा तो नहीं निकल गई?

    मैंने घड़ियाँ गिन-गिन के काटीं और फिर भी आध घंटा पहले ही निकल खड़ा हुआ। जब मैं उसके होस्टल पहुँचा तो बहुत सवेरा था। वक़्त काटने को मैं मीलों मारा-मारा फिरा लेकिन वक़्त काटे ही कटता था। मैं लौट आता और फिर चला जाता। लम्हे सब्र-ए-अय्यूबी की तरह गुज़र रहे थे।

    आख़िर-कार वो ही गई और शरमाई हुई हँसी हँस-हँस के साईकल पर बैठी। शुरू’-शुरू’ में तो वो ख़ुदी के एहसास से डरती रही, लेकिन जब हम सुनसान सड़क पर पहुँच गए तो उसका डर निकल गया।

    “तुम तो बड़ी अच्छी साईकल चलाती हो।”, मैंने कहा।

    “नहीं। अभी तो डर लगता है। मगर आज नहीं गिरूँगी। तुम बचा लोगे।”

    ये कह कर उसने मेरी तरफ़ देखा। उसकी बड़ी-बड़ी ख़ूबसूरत आँखों में नर्मी थी, मुझ पर भरोसे और ए'तिमाद का यक़ीन। मैं ये समझा कि मुहब्बत थी। अगर नहीं भी थी तो क्या। मैं जब तक जियूँगा ये ख़याल मेरे दिल में पोशीदा रौशनी की तरह छिपा रहेगा और कोई भी इसकी शम्अ’ को गुल नहीं कर सकता। मैं इस तरह ख़ुशी से फूल गया जैसे मैंने उसके दिल पर क़ाबू पा लिया है और नाज़ाँ हूँ। इस ग़ुरूर से मैं ख़ुद अपनी निगाह में ख़ुश-क़िस्मत मा'लूम होने लगा।

    थोड़ी देर के बा'द वो थक गई। हम पार्क में से गुज़र रहे थे और उसने कहा कि आओ बैठ जाएँ। सूरज ग़ुरूब हो रहा था और उसके शोख़ रंग आसमान पर बिखरे हुए थे। साईकलें ज़मीन पर रख के हम एक विलाएती मटर के तख़्ते के पास बैठ गए। वो प्यार और नर्मी से बातें करती रही और मैं हर लफ़्ज़ को जो उसके मुँह से झड़ता ओस और शहद की तरह पीता रहा।

    मुझे याद नहीं कि उसने क्या-क्या बातें कीं। मुझे ये भी याद नहीं कि मौज़ू’-ए-सुख़न क्या था। पर अभी तक उसकी गुलाबी साड़ी का रंग मुझे याद है, उसकी उँगलियों की नज़ाकत और विलाएती मटर की मस्ती भरी महक। मेरा दिल उसके क़दमों पे था और मेरी रूह इस तरह उसकी तरफ़ बह रही थी जैसे पानी के चश्मे चटानों से निकल कर एक अमीक़ झील में खो जाते हैं।

    “जब मैं मरूँ तो मुझे गुलाबी कपड़ों में दफ़्न करना और बहुत से विलाएती मटर के फूल मेरे ऊपर डाल देना।”, उसने अफ़्सुर्दगी और जज़्बे से कहा, मेरा दिल दर्द से सिमट कर एक ज़िंदान मा'लूम होने लगा। मेरी आँखों के सामने वो ज़माना गया जब वो मेरे पास होगी और मैं अकेला हूँगा। ये ख़याल एक तीर की तरह से मेरे जिगर के पार हो गया। आम के दरख़्त में एक कोयल दर्द से यकायक कूकी और उसके साथ ही साथ एक मोर की दर्द-अंगेज़ झंकार सुनाई दी।

    “ऐसी बातें तो मुँह से निकालो। तुम मौत के लिए हो मौत तुम्हारे लिए…”, एक ग़मगीं मुस्कुराहट उसके चेहरा पे फैल गई और मेरा दिल दुनिया के सब गुलाबों और विलाएती मटर के फूलों की मुहब्बत से भर आया। फिर अदा से वो कोहनियों के बल लेट गई और मेरी तरफ़ देखा। मेरी आँखें उन हसीन आँखों की चश्मक से चकाचौंद हो गईं।

    उस वक़्त वो आँखें मुहब्बत के दो समंदरों की तरह की थीं जिनकी सत्ह की वुसअ'त निगाह की ज़द से बाहर थी और उनकी गहराई आँखों की रौशनी से पोशीदा। उन समंदरों में दो मौजें ब-यक-वक़्त बल खाती हुई उठीं, एक दूसरे से टकराईं और बहती हुई मेरी रूह की गहराइयों में उतर गईं।

    मैं उस लहर के जज़्बे में ग़र्क़ हो गया। वो मुझे अपनी रौ में बहा ले गई। ख़ुशी से मेरी ज़बान पर मुहर लग गई। मेरा जी चाहता था कि कुछ कहूँ, कुछ करूँ, लेकिन ख़ौफ़ मुझ पर तारी हो गया। मैंने अपने दिल में कहा कि मुझे अपनी मुहब्बत के इज़हार करने का कोई हक़ नहीं। मैं अपनी मुहब्बत से डरता था। उस एक लम्हे में मैंने मौत और ज़िंदगी दोनों का मज़ा चख लिया।

    दुबारा फिर उसने अपना सर पीछे झुकाया और इस क़दर झुकी कि सर ज़मीन से लग गया। उसके काले बाल हरी हरी घास पर बिखर गए और उसकी गुलाबी साड़ी ने सियाह चाँद के गिर्द हाला बना लिया। उसके होंट काँप रहे थे और उसकी आँखों में बोसे की दा'वत झलक उठी। मेरा दिल धड़कने लगा। ख़ून पहले तो जोश में आया फिर यकायक रगों में रुक गया। पर जो कुछ भी मेरी आँखों ने देखा उसका दिल ने ए'तिबार किया। ये कहाँ मेरी क़िस्मत कि इसके होंटों को प्यार कर सकता। “ये सिर्फ़ मेरा गुमान है”, मैंने कहा, “वो तो आसमान को देख रही है।”

    मैं भी पीछे झुका और आसमान को देखने लगा। सूरज ग़ुरूब हो चुका था और आसमान की बढ़ती हुई सियाही में एक पुरानी मस्जिद की दो टूटी हुई मीनारें दिखाई दे रही थीं।

    “किस क़दर ला-जवाब और रंगीन शाम है।”

    मेरे अल्फ़ाज़ सिर्फ़ मेरे ही कानों में गूँजे, एक लम्हा लहराए और ख़ामोश फ़िज़ा में खो गए। वो जादू जो अभी तक हवा में मौजूद था, डूबते हुए सूरज की तरह पलकों में ग़ाइब हो गया और सिर्फ़ तारीकी ही तारीकी दिखाई देती थी। मेरे दिल पर एक क़ालिब ढक गया और ख़ुशी की कैफ़िय्यत अफ़्सुर्दगी से बदल गई। वो उठ बैठी और दूर मग़रिब की बढ़ती हुई तारीकी को घूरने लगी। फिर थकी हुई आवाज़ से बोली,

    “अब तो देर हो गई, चलना चाहिए।”

    मैंने उसकी साईकल उठा के दी और उसके बराबर बराबर चलता रहा। हममें से किसी ने बातचीत की। वो थकी हुई और ख़याल में महव मा'लूम होती थी, लेकिन मैं अभी तक उसके क़रीब होने की ख़ुशी में मस्त था और उसकी मुहब्बत पर नाज़ाँ। मुझको ये ख़याल आया कि मैं उसकी मुहब्बत को ठुकरा रहा हूँ। मैं ज़िंदगी को अपनी आग़ोश में लेने से डरता था, फूलों की तरह गोद में समेटने से। बज़ात-ए-ख़ुद तो इस लापरवाही में कोई बुरी बात थी, लेकिन इसका नतीजा मोहलिक साबित हुआ। मैं एक ख़याली दुनिया में रहता था और सिर्फ़ इ'श्क़ की मुहब्बत में गिरफ़्तार। वो जुलाई के आम की तरह पुख़्ता थी, मुहब्बत के लिए तैयार। इसमें शक नहीं कि मुझे उससे मुहब्बत थी और मुहब्बत की वज्ह से मैंने उसे प्यार करने से परहेज़ किया और उसकी तरफ़ नफ़्सानियत से निगाह उठाई। वो एक फ़रिश्ता थी और इन दुनियावी चीज़ों से बाला-तर। इसी लिए दर-अस्ल मेरी मुहब्बत ही ने मुहब्बत का ख़ात्मा कर दिया।

    लेकिन इस वाक़िए’ के बा'द भी हमारे तअ'ल्लुक़ात क़ाएम रहे हालाँकि वो उस कोफ़्त और तकलीफ़ के एहसास को हरगिज़ भूली होगी जो इसके बाइस पैदा हुई।

    मैं उससे अब भी उसी तरह मुहब्बत करता रहा और मुहब्बत के रंजों ही ने मुझको इंसान भी बना दिया और अ'ज़्मत का एहसास भी पैदा किया और जब तक कि मैं दर्द-ओ-अलम सहने के क़ाबिल रहा उस वक़्त तक इंसानियत का जज़्बा भी मेरे अंदर बाक़ी रहा। बा'द में जब मैंने ज़िंदगी की ख़्वाहिश को घोंट डाला, जब मैं हक़ीक़त से घबरा कर धोके की उस दुनिया में रहने लगा जो सिर्फ़ मेरी ज़ात से वाबस्ता थी तो मैं मा'ज़ूर भी हो गया और हुस्न के एहसास को भी भूल गया।

    रात को जब मैं सोने लेटा तो यकायक ख़याल आया कि वो नाराज़ हो गई है। तो जुदा होते वक़्त उसने अफ़्सुर्दगी का इज़हार किया था और पलट कर मेरी तरफ़ देखा ही था। जैसे-जैसे मैं शाम के वाक़िआ'त का ख़याल करता वैसे-वैसे ग़म मुझे अपने पंजों में जकड़ता जाता था, बार-बार मैं कहता, “हाय मैंने क्या किया” और दिल ही दिल में उससे हज़ार बार मुआ'फ़ी माँगता और अपना सर उसके क़दमों पर रख के अपनी मुहब्बत का यक़ीन दिलाता।

    मेरी मुहब्बत ग़ैर-फ़ानी थी और उसमें कोई कमी हुई। हालाँकि मैं जब आख़िरी बार उसकी मौत से ज़रा पहले मिला तो वो बदल चुकी थी और मेरे जज़्बात में तुग़्यानी आई, लेकिन मेरे दिल की गहराई में इ'श्क़ की आग इस तरह सुलग रही थी जैसे सूरज की रौशनी। मैं उससे अपनी मुहब्बत में इ'श्क़ करता था जो अब तक फ़ना नहीं हुई।

    अगले रोज़ उससे एक पार्टी में मुलाक़ात हुई। मेरा चेहरा ज़र्द था। मेरा दिल धड़क रहा था कि देखिए अब क्या होता है। वो बैठी एक तकिए से खेल रही थी मगर उसने मेरी तरफ़ निगाह उठा के भी देखा। मैं बैठ गया, लेकिन जी यही चाहता था कि तन्हाई में उससे अपने क़ुसूर की मुआ'फ़ी माँगूँ। सब हँस बोल रहे थे और वो भी ख़ुश थी। मगर मेरे होंटों पर ख़ामोशी की मुहर लग गई थी क्योंकि उस वक़्त मैं एक ज़िंदा इंसान था। एक शख़्स ने पूछा,

    “ख़ैरियत तो है? ख़ामोश क्यों हो?”

    “कोई ख़ास बात नहीं।” और ये कह कर मैं फिर यास के समंदर में डूब गया।

    फिर सब गाने बजाने लगे। लीला ने मुझसे भी कहा कि गाओ। लेकिन उस वक़्त मेरे दिल में उस बला का ग़म था कि मैं हरगिज़ गा सकता था। ऐसा मा'लूम होता था कि सारी एशिया के पहाड़ मेरे अंदर समा गए हैं। जब लीला ने इसरार किया तो वो भी प्यार से बोली,

    “आख़िर गा क्यों नहीं देते?”

    “मैं नहीं गाऊँगा”, मैंने कुछ इस तरह चिल्ला कर कहा कि यकायक सारे मजमे’ में ख़ामोशी छा गई। मैं कहना तो कुछ और ही चाहता था। लेकिन जाने मेरे मुँह से ये जुमला कैसे निकल गया। मेरा दिल उसकी मुहब्बत से लबरेज़ था और मैं उसको किसी तरह भी ना-ख़ुश कर सकता था। मगर उस वक़्त कुछ ऐसा मा'लूम हुआ कि मेरी आवाज़ खो गई है। मेरा दिल तो कुछ कह रहा था और ज़बान कुछ और। इसके बा-वजूद भी मुझको यक़ीन था कि वो हरगिज़ बुरा मानेगी। मुझको यक़ीन था कि वो और मैं एक हैं और वो मेरे जज़्बात और एहसास को महसूस कर लेती है।

    मैंने बात बनानी चाही और लीला से कहा,

    “गया हो जब अपना ही जिवड़ा निकल

    कहाँ की रुबाई कहाँ की ग़ज़ल”

    इस पर एक साहिब ने जुमला कसा, “अच्छा, आप इ'श्क़ में मुब्तिलास हैं!”

    इसके बा'द उसने मेरी तरफ़ मुड़ के भी देखा और जब सब खाने के लिए बैठे तो उसने पहले ही से ऐ'लान किया, “मेरी जगह ये है” और मुझसे बहुत दूर मेज़ के दूसरे सिरे पर बैठ गई। ये ऐ'लान सिर्फ़ मेरे लिए था बल्कि सारे मजमे’ को बताने के लिए कि अब मुझसे क़त’-ए-तअ'ल्लुक़ हो गया है। इससे पेश्तर वो मुझको भीड़ में से ढूँढ निकाल लेती थी और हमेशा मेरे ही पास बैठती। लेकिन अब तो दुनिया ही बदल चुकी थी।

    मेरा दम घुटने लगा। लोगों से वहशत होने लगी। मेरे पैर बोझल हो गए। मेरी निगाह दर्द से उसके चेहरे पर जम गई। मैं बे-वक़ूफ़ों की सी बातें कर रहा था और मेरा राज़ सबको मा'लूम हो गया। पर इ'श्क़ में तो पिंदार बाक़ी रहता है इ'ज़्ज़त-ओ-ख़ुद्दारी। वो कुर्सी खींच कर बैठ गई और आँखें तश्तरी पर गड़ा लीं। लेकिन इस बात का मुझे यक़ीन है कि वो मेरे जज़्बात को महसूस कर रही थी। मेरी आँखों तले अँधेरा गया और मैं दीवाना-वार कमरे से भाग निकला।

    सब कुछ ऐसे मुतहय्यर हुए कि किसी के मुँह से कोई लफ़्ज़ निकला। मगर जब मैं बरामदे की सीढ़ियों से उतर रहा था तो एक क़हक़हे की आवाज़ आई। रक़ाबत और जलन की लहर मेरे अंदर दौड़ गई। वो मज़े कर रही थी। उसे मेरी क्या परवाह थी। उसे तो किसी और से मुहब्बत थी। ये ख़याल एक आरे की तरह मेरे जिस्म को काटता हुआ दिल के पार हो गया।

    मेरा दिमाग़ मुअत्तल हो चुका था, मेरी टाँगें पारे की तरह बे-क़रार थीं। सारी रात मैं मारा-मारा फिरा। अपने बालों को नोचता और सीने पर घूँसे मारता। मैंने ज़ोर-ज़ोर से अपने चुटकियाँ लीं। लेकिन दर्द ने मेरे जिस्म को सुन्न कर दिया था और जिस्मानी तकलीफ़ का एहसास मिट चुका था।

    कोई बीस मील फिरने के बा'द जब मैं अपने कमरा में आया तो सुब्ह-ए-सादिक़ की थकी हुई रौशनी आसमान पर फैल रही थी, लेकिन नींद मुझसे रात की तरह दूर थी। दिल की जगह मेरे सीने में एक ला-दवा दर्द था। यही जी चाहता था कि नश्तर से उसे कचोकूँ और मुट्ठी में भींच कर सब एहसास निचोड़ डालूँ। दर्द एक फोड़े की तरह लप-लप कर रहा था।

    मेरी निगाह क़लम-तराश पर पड़ी। सीना-चाक करके मैंने गोश्त को चाक़ू की नोक से गोदना शुरू’ किया। लेकिन तकलीफ़ का एहसास उठ चुका था। फिर मुझे और ही ख़याल आया। दर्द दिल से निकल कर दिमाग़ में पहुँच गया था। मैंने अपने सीने पर दिल की शक्ल गोदनी शुरू’ की। इसके बा'द गुदे हुए दिल में उसकी शबीह बनाई। ख़ून बह-बह कर टपक रहा था, लेकिन उसके बहने से मेरे दिमाग़ को सुकून हुआ। फिर आईना उठा कर बड़ी देर तक अपनी दस्तकारी को देखा किया। अब दर्द कम हो गया था और थकन मा'लूम होने लगी। उजाला हो चला था और लोग जाग गए थे। इस डर से कि कहीं पकड़ा जाऊँ, क़मीस के बटन लगाकर मैं लेट गया। मीठा-मीठा दर्द फिर होने लगा और उसी हालत में आँख लग गई।

    अब बयान करने से क्या फ़ाएदा कि मुझपे क्या गुज़री?

    ये बताना भी बेकार है कि मैंने क्या-क्या किया। मैं एक ऐसा बद-नसीब था जिसे ज़िंदगी दूभर हो गई हो। इंसानों की सोहबत से भाग कर मैं जंगलों में मारा-मारा फिरने लगा। दिनों कुछ खाया पिया और जब खाया भी तो निवाला हल्क़ में अटकने लगा। रात गए चोरों की तरह अपने कमरा में घुसता और सुब्ह होते ही फिर निकल खड़ा होता, मेरे दोस्त तसल्ली देनी चाहते थे। मेरी हालत दीवानों की सी हो गई और उनके चेहरों से परेशानी टपकती थी। लेकिन मैं उनसे दूर-दूर रहता और इंसानों से बचता फिरता।

    जब मैं उससे मिलने गया तो मा'लूम हुआ कि वो कहीं चली गई है। मुझे हैरत हुई कि वो कहाँ और क्यों चली गई। उसने मुझसे तो कहा भी था कि बाहर जाने वाली हूँ। मुझे शक हुआ कि कहीं गई नहीं है बल्कि सिर्फ़ बहाना कर दिया है। इस ख़याल से वहशत और भी बढ़ गई। मुझे उसका पता तक मा'लूम था और मैं ख़त भी लिख सका।

    पंद्रह रोज़ के बा'द वो लौट आई।

    “तुम्हारी तबीअ'त तो अब अच्छी है?”, उसने प्यार से पूछा।

    मेरी बीमारी का हाल उसे क्यूँ-कर मा'लूम हुआ? लेकिन फिर ख़याल आया कि ये बात तो उसी रात को मेरे चेहरे से ज़ाहिर हो गई होगी। या शायद किसी ने उसको मेरी दास्तान कह सुनाई हो। मेरा दिल धड़-धड़ करने लगा। इसके साथ ही साथ ख़ुशी का भी एहसास हुआ। उसको ये तो मा'लूम हो गया कि मैंने क्या-क्या मुसीबतें उठाईं। शायद उसी से उसका दिल पसीज जाए और वो मुझसे मुहब्बत करने लगे। मैंने बात बनाई और उसके सवाल का जवाब दिया।

    “मुझे मा'लूम है”, वो बोली और एक अ'जीब तरीक़े से मुस्कुराई, इस तरह से जैसे उसको किसी पोशीदा शुबह का यक़ीन हो गया हो। मेरे मुँह से कोई लफ़्ज़ निकला।

    “लेकिन तुम्हें कोई चीज़ सता रही है।”, उसने मुहब्बत से कहा, “कह देने से भड़ास निकल जाती है। मुझे तो बता दो क्या बात है। तुम इस क़दर मग़्मूम क्यों रहते हो? शायद मैं कुछ मदद कर सकूँ।”

    मेरे हल्क़ में काँटे पड़ गए, ज़बान अंदर को खिंचने लगी। जज़्बे की शिद्दत से मेरी आवाज़ बंद हो गई। मैं अपना दिल खोल कर उसके सामने रख देना चाहता था, लेकिन मेरी मुहब्बत लफ़्ज़ों से अदा हो सकती थी। मेरा रोंग्टा-रोंग्टा मुहब्बत की दास्तान बना हुआ था। मैं जो कुछ महसूस कर रहा था, अल्फ़ाज़ अदा कर सकते थे।

    जब मैंने इन लफ़्ज़ों का ख़याल किया, “मुझे तुमसे मुहब्बत है” तो इस क़दर भोंडे और करख़्त मा'लूम हुए कि मेरा दिल और दिमाग़ मुतनफ़्फ़िर हो गए। वो तो मेरे नज़दीक एक ख़याल थी जो हक़ीक़त के पर्दे में छिपा हुआ है, वो यगानगत जो तारों को यकजा रखती है। वो तो हवा का एक नर्म झोंका थी, एक नग़्मा जो दूर से अपना जादू सुनाता है। वो मुझ जैसे इंसानों के लिए पैदा हुई थी और मेरे मुँह से वो लफ़्ज़ निकले जो मुझको अपनी ना-मुम्किन तलाश की मंज़िल-ए-मक़्सूद तक पहुँचाकर मेरे सब ख़्वाबों को पूरा कर देते।

    मैं इधर-उधर की बातें करने लगा और अपने इरादे और मंसूबे बताने लगा। वो भी हूँ-हाँ करती रही। थोड़ी ही देर में मैं रवाना हो गया हालाँकि उसकी सोहबत से मेरा दिल नहीं भरा था। उसके पास रहने की ख़्वाहिश दुनियाओं से भी ज़ियादा वसीअ’ थी। मैं सदियों उसे देखा करता और कभी भी सेरी हासिल होती। लेकिन फिर उसकी मुस्कुराहट मेरी आँखों में रक़्स करने लगी और उसके मुहब्बत भरे जुमले मेरे कानों में गूँज उठे।

    ख़ुशी की लहर मेरे दिल में उठी और ऐसा मा'लूम हुआ कि ज़मीन जून की पहली बारिश के बा'द शादाब हो गई हो। पंद्रह दिन के बा'द पहली बार मैं इंसानों की जून में आया।

    मुहब्बत और नफ़रत मुझे उसी तरह बरसों झूले-झुलाती रही। मैं कभी अपनी मुहब्बत का इज़हार कर सका। जो सच पूछो तो में उसका तज़्किरा कर ही सकता था। मेरी मुहब्बत इतनी गहरी थी कि अल्फ़ाज़ उसकी तह का पता दे सकते थे।

    फिर वो चली गई। लेकिन मेरी मुहब्बत को ज़वाल था। छुट्टियों में कभी-कभी उससे मुलाक़ात होती और हम घंटों बैठ कर बातें किया करते और ये लम्हे मेरी ज़िंदगी के बेहतरीन लम्हे थे जिनकी उम्मीद में जुदाई के दिन आसानी से कट जाते थे। जितनी देर के लिए मैं उसके साथ रहता मुझसे ज़ियादा ख़ुश-क़िस्मत कोई और इंसान होता। जब मैं चला आता तो मेरा दिल उसके क़दमों में रह जाता। उस ज़रा सी ख़ुशी के लिए जो मुझको उसकी सोहबत में हासिल होती थी मैं हज़ार बार मर-मर के जीता था। अपने आपको उसके लाएक़ बनाने के लिए मैंने बहुतेरे जतन किए और उसने जिस बात की भी मुझको दुआ’ दी वो पूरी हुई।

    फिर एक वक़्त ऐसा आया कि उसने मुझको दुआएँ देनी छोड़ दीं। मेरे कान उसकी अच्छी-अच्छी बातें सुनने को तरसते थे। लेकिन पेशीनगोई का चश्मा ख़ुश्क हो चुका था। मेरे दिल में शुबहात पैदा होने लगे और ऐसा मा'लूम हुआ कि वो मिज़राब जिससे सोज़ पैदा होता था टूट गई। मैं रंज और याद के अलम में निढाल हो गया। मेरे दिल ने कहा कि वो अब मेरे हाथों से निकल गई। इस एहसास से पिछ्ला तूफ़ान बपा हुआ बल्कि एक फ़लसफ़ियाना अफ़्सुर्दगी मेरे ऊपर छा गई।

    मौत का राग मेरे कानों में बजने लगा जिसका साज़ वक़्त और अज़ल बजा रहे थे और साथ ही साथ ये ख़याल भी दिल में बैठ गया कि मेरे नसीब अब जागेंगे। मुहब्बत की जगह मलामत ने ले ली और मेरी कैफ़िय्यत उस शख़्स की सी हो गई जो बादशाह से गदा हो गया हो। मेरी क़ुव्वत-ए-इरादी ख़त्म हो गई और ज़िल्लत के बद-तरीन ख़याल दिल में आने लगे।

    मगर मैं अभी तक उससे ख़त-ओ-किताबत करता रहा और वो जवाब देती रही। वो मुहब्बत जिस पर मैंने अपनी ज़िंदगी की बिना डाली थी, इस क़दर मज़बूत थी कि मैं इन हरा देने वाली ताक़तों का मुक़ाबला करता रहा जो मेरे अंदर पैदा हो गई थीं।

    मगर वो फिर औ'रत थी और मैं इस ख़याल में था कि वो मुझसे मुहब्बत करती रहेगी और मुहब्बत जताने पर मबनी नहीं। ये एक ना-मुम्किन ख़याल था। चुनाँचे एक रोज़ उसने लिखा कि मैं शादी कर रही हूँ, “गोविंदा तुम बुरा तो मानोगे? आख़िर सोसाइटी का भी तो ख़याल करना पड़ता है...”

    अलम का बंद टूट गया। रंज और मलामत ने मुझको घेर लिया। ज़िंदगी के हाथों हार मान के मैं मुहब्बत को शराब में डुबोने लगा। नफ़रत और जलन के सहरा में ख़ुद्दारी का नाम भी बाक़ी रहा। अगर कोई पूछता तो मैं कहता कि वो भी सब औ'रतों की तरह दौलत और आज़माइश की दिल-दादा है और मुझे उससे कभी मुहब्बत थी ही नहीं। मैं इ'श्क़ पर हँसता और कहता कि इ'श्क़ कोई चीज़ नहीं, महज़ एक धोका है, बच्चों के बहलावे के लिए बाज़ीगरी का तमाशा, वो हिक़ारत जिससे ख़ुदा इंसान को देखता है। लेकिन इन सब के बा-वजूद भी शराब पीता और नफ़रत की नुकीली चटानों पर पैर लहू-लुहान करता रहा।

    इसके बा'द मुझे जिस्मानी मज़ों का चस्का पड़ गया। मैं औ'रतों से इस तरह खेलता जैसे बच्चे खिलौनों से, उनको सीने से चिमटाता और फिर चूसे हुए मीठों की तरह फेंक देता। मेरे सब नसब-उल-ऐन एक-एक करके गुलाब की पंखुड़ियों की तरह झड़ गए। उनकी सुर्ख़ी से ज़मीन चमक उठी होगी लेकिन अफ़सोस कि मैं ख़ुद ही उनकी रंगीनी को देख सका। मैं औ'रतों से इस तरह अदाकारी से पेश आता कि वो इस बात का शुबह भी कर सकती थीं कि तसन्नो’ से काम ले रहा हूँ। वो आसानी से धोका खा जातीं और बला-ए-मुहब्बत में गिरफ़्तार हो जाती थीं।

    उस वक़्त तक मुझे इ'ल्म था कि औ'रत को क़ब्ज़े में करने के लिए सिर्फ़ हँसी और सर्द-मेहरी के साथ थोड़ी सी ख़ुशामद काफ़ी होती है। औ'रत को संजीदगी पसंद है और उसे रूह के सोज़-ओ-साज़ की परवाह है। वो तो ज़िंदगी का सिर्फ़ एक ही मक़्सद जानती है और उसको पूरा करने के लिए शिकारी का भेस बदल कर इस फ़न की सब चालों को बड़ी उस्तादी से चलती है। लेकिन मैंने औ'रत को इस मैदान में भी हरा दिया। मेरी बातों में बड़ी नर्मी और मुहब्बत होती थी, मेरी अदाओं में तवज्जोह और इ'श्क़ की गर्मी और वो मुझ पर जान तक क़ुर्बान करने को तैयार हो जाती थीं। लेकिन मुझमें इंसानियत की बू बाक़ी रही थी। मैं ज़मीन पर एक मग़रूर राहू की तरह फिरता और ख़ुद-ग़रज़ी और ख़ुद-पसंदी मेरी आ'दत हो गई।

    जन्नत का फल खा लेने के बा'द में दुनिया की ने'मतों का मज़ा भूल गया। मेरा दिल एक पेठे की तरह सूरज में सूख गया और ज़िंदगी के बेश-बहा अरक़ मेरे अंदर ख़ुश्क हो गए। जब तक मैं रंज सहता रहा मेरा दिल भी नर्म रहा, जब तक मुहब्बत मेरे दिल में रही इंसान बना रहा।

    अब तो मैं एक जानवर से भी बद-तर हो गया था। मुझमें दर्द का एहसास बाक़ी था और ज़िंदगी की अ'ज़्मत। मैं अपनी ही दुनिया में रहने लगा जिसका मर्कज़ मेरी ख़ुदी थी। मेरे दोस्त मुझ पर तअ'ज्जुब करने लगे। वो मुझ पर रश्क ज़रूर करते थे क्योंकि वो सब बुज़-दिल थे और उनमें मेरी तरह ज़िंदगी का मुक़ाबला करने की हिम्मत थी। बुज़दिल मैं भी था, लेकिन वो मेरी बुज़-दिली की ख़ासियत जानते थे।

    फिर कई साल के बा'द उससे इत्तिफ़ाक़िया मुलाक़ात हुई। बस ऐसा मा'लूम हुआ जैसे किसी ने सुन्न जिस्म पर घूँसा मारा हो। रफ़्ता-रफ़्ता ग़ुबार-आलूद जलन के पर्दे में से उस सुनहरी शहर की मिटी-मिटी मीनारें जो वक़्त की धुँदली वादी में मद्धम ख़्वाबों पर बना हुआ था, फिर दिखाई देने लगीं। बग़ैर जाने हुए मैं फिर उन जादू भरी गलियों का तवाफ़ करने लगा जो अब बरसों के गर्द-ओ-ग़ुबार से मैली हो चुकी थीं। माज़ी एक राग के धीमे सुरों की तरह उठता दिखाई दिया और अलाप की बुलंद आवाज़ कानों में गूँजने लगी जिससे मेरा दिमाग़ चकरा गया।

    सिवाए उन चंद लम्हों के जब मुझे देखते ही इसका रंग उड़ गया था, उसके चेहरा से इत्मीनान टपकता रहा। उसके सुकून का ख़याल करके मेरे जिस्म में आग लग गई। वो एक फूल की तरह भँवरे की तड़प से बे-ख़बर थी। मेरे दिल को वीरान करके मेरे सब ग़ुरूरों को मिटा कर उसे बनाव-सिंगार का क्या हक़ था।

    वो इत्मीनान से बातें करती रही और उन अफ़्वाहों का तज़्किरा किया जो मेरे बारे में सुनी थीं। उसकी गुफ़्तगू में शायद वही पुराना अंदाज़ था। लेकिन मैं बदल चुका था मेरा जी चाहता था कि कह दूँ कि हाँ तुम ही तो हो जिसकी ख़ातिर मैंने ये सब ज़िल्लत और बुराइयाँ मोल लीं। लेकिन मुझे ऐसा मा'लूम हुआ कि हमारे दरमियान एक ख़लीज हाइल हो चुकी है जिसने वक़्त के दोनों किनारों को एक दूसरे से अलाहिदा कर दिया है। मेरी बातों में तसन्नो’ गई और नफ़रत की आग मेरे अंदर भड़क उठी। यही जी चाहता था कि पकड़ कर उसे मसल डालूँ, गला घोंट दूँ, ताकि वो भी उस तूफ़ान की तेज़ी को महसूस कर सके जो मेरे अंदर बपा था और इत्मीनान से बातें बनाए।

    में एक दम से उठ खड़ा हुआ। प्यार से उसने कहा, “गोविंदा, ज़िंदगी से नफ़रत करना। ये मेरी दोस्ताना सलाह है…”, जल्दी से ख़ुदा-हाफ़िज़ कह कर मैं चल दिया।

    मैं चला तो आया लेकिन एक जंगल में खो गया और रास्ता कहीं से मिलता था। दो चीज़ें मुझको परेशान कर रही थीं, एक तो जलन और दूसरे नफ़रत, जूँ-जूँ में उसके इत्मीनान और सुकून का ख़याल करता मेरे दिल में नफ़रत बढ़ती जाती हत्ता कि उसके आख़िरी अल्फ़ाज़ मेरे कानों में गूँजने लगे और मेरे दिमाग़ में एक डरावने ख़्वाब के शोर-ग़ुल की तरह भर गए। मुझे ऐसा मा'लूम हुआ कि मैं पागल हो गया हूँ। मेरी ज़बान में काँटे पड़े हुए थे, मेरा हल्क़ ख़ुश्क था।

    दिल की जगह सीने में एक ख़ला था, जिसमें ये सब डरावनी आवाज़ें गूँज रही थीं। मैंने छाती पर ज़ोर-ज़ोर से घूँसे मारे। यकायक मुझे उस तस्वीर का ख़याल गया जो मैंने उस जगह गोदी थी। अपना गिरेबान चाक करके मैंने सीने पर निगाह डाली। निशान रात के अँधेरे में चीते की आँखों की तरह चमक रहे थे। मुझे उस तस्वीर से नफ़रत हो गई, मुझे उससे ख़ुद से नफ़रत थी। वो अब मेरी थी। वो तो उसकी बीवी थी... मैंने जेब से चाक़ू निकाल उसकी तस्वीर के आरपार अपने सीने पर चला दिया, उस वक़्त तो एक अ'जीब सुकून हासिल हुआ और मेरे दिल की जलन कम हो गई लेकिन ख़ून निकलने की वज्ह से कमज़ोरी बढ़ गई और मैं बेहोश हो गया।

    लोगों ने मुझे हस्पताल पहुँचा दिया, सब को हैरत थी कि माजरा क्या हुआ, कोई कहता था कि हादिसा पेश आया, कोई कहता था कि ख़ुदकुशी करने की निय्यत थी... चंद रोज़ में ज़ख़्म भर गए और मैं तंदुरुस्त हो गया। लेकिन अब जवानी जा चुकी थी और ख़िज़ाँ का मौसम था। इस वाक़िए’ के बा'द मैं इ।उससे कई बार मिला लेकिन फिर कभी ऐसी हालत हुई।

    जब आख़िरी बार उससे मुलाक़ात हुई तो वो बीमार थी। वही मार्च का दिल-सोज़ महीना था, वही शाम का सन्नाटा। सूरज ग़ुरूब हो रहा था और बरामदे की जालियों में से रौशनी छन-छन के रही थी और हवा में विलाएती मटर के फूलों की महक बसी हुई थी। हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ से ब-यक-वक़्त हम दोनों को एक ही ख़याल आया।

    “मुझे विलाएती मटर की ख़ुशबू बहुत पसंद है”, उसने नर्मी से कहा और एक ख़फ़ीफ़ सी अफ़्सुर्दगी उसके चेहरे पर गई। उसने आँखें बंद कर लीं जैसे वो याद की मरती हुई रौशनी को पकड़ने की कोशिश कर रही हो।

    “और दुनिया के सब गुलाब...”

    दर्द मेरे दिल में भी भर आया था...

    इसके बा'द फिर उससे मुलाक़ात हुई और कुछ ही अ'र्से में वो मर गई। उसकी लाश पानी में से पाई। वो गुलाबी साड़ी और विलाएती मटर का हार पहने हुए थी। लेकिन मेरे दिल में पहले की तरह तूफ़ान ही बपा हुआ और उसकी याद एक ख़्वाब बन के आई। वो तो मेरे दिल में बस चुकी थी, इस संग-दिल दुनिया की नब्ज़ की तरह मेरी रूह की गहराइयों में आहिस्ता-आहिस्ता चल रही थी जैसे हवा दरख़्तों को एक ला-ज़वाल मुहब्बत भरी लोरी सुना रही हो।

    स्रोत:

    क़ैद ख़ाना (Pg. 41)

    • लेखक: अहमद अली
      • प्रकाशक: इंशा प्रेस, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1944

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