aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "मुंतक़िल"
मुंतज़िर फ़िरोज़ाबादी
born.1990
शायर
मुंतज़िर लखनवी
1768 - 1803
मुंतज़िर क़ाएमी
born.1976
मोहित नेगी मुंतज़िर
born.1995
शैख़ हसन मुश्किल अफ़कारी
born.1915
सईद अहमद मुंतज़िर
लेखक
नूरुल इस्लाम मुंतज़िर
1868/9 - 1802
इन्तिक़ाम-उल-हसनैन मुन्तकिम हैदरी
मोहम्मद अब्दुल्लाह मुंतज़िर
सय्यद मुंतज़िर जाफ़री
मुतरिब बलियावी
born.1929
नदीम अर्शी
1950 - 2016
अल-मुंतज़िर सोसाइटी, लखनऊ
पर्काशक
मुक़बल देहलवी
क़ाज़ी मोहम्मद अब्दुल्लाह मुंतज़िर
संपादक
सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्तमकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं
ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोतीये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
बा’ज़ लोग ऐसे हैं जो अपने महसूसात को दूसरों की ज़बान में बयान करके अपना सीना ख़ाली करना चाहते हैं। ये लोग ज़ेहनी मुफ़्लिस हैं और मुझे उनपर तरस आता है। ये ज़ेहनी अफ़लास माली अफ़लास से ज़्यादा तकलीफ़देह है। मैं माली मुफ़लिस हूँ मगर ख़ुदा का शुक्र है ज़ेहनी...
ताराबाई की आँखें तारों की ऐसी रौशन हैं और वो गर्द-ओ-पेश की हर चीज़ को हैरत से तकती है। दर असल ताराबाई के चेहरे पर आँखें ही आँखें हैं । वो क़हत की सूखी मारी लड़की है। जिसे बेगम अल्मास ख़ुरशीद आलम के हाँ काम करते हुए सिर्फ़ चंद माह...
ऐसे वाक़ियात को जिनकी याद मेरे ज़ेहन में अब तक ताज़ा है, मैं आम तौर पर दुहराता रहता हूँ, ताकि उनकी तमाम शिद्दत बरक़रार रहे और इस ग़रज़ के लिए मैं कई तरीक़े इस्तेममाल करता रहता हूँ। बा’ज़ औक़ात मैं ये बीते हुए वाक़ियात अपने दोस्तों को सुना कर अपना...
एक जगह दूसरी जगह या एक वतन से किसी नए वतन की तरफ़ मुंतक़िल हो जाने को हिजरत कहा जाता है। हिजरत ख़ुद इख़्तियारी अमल नहीं है बल्कि आदमी बहुत से मज़हबी, सियासी और मआशी हालात से मजबूर हो कर हिजरत करता है। हमारे इस इन्तिख़ाब में जो शेर हैं उन में हिजरत की मजबूरियों और उस के दुख दर्द को मौज़ू बनाया गया है साथ ही एक मुहाजिर अपने पुराने वतन और उस से वाबस्ता यादों की तरफ़ किसी तरह पलटता है और नई ज़मीन से उस की वाबस्तगी के क्या मसाएल है इन उमूर को मौज़ू बनाया गया है।
नए साल की आमद को लोग एक जश्न के तौर पर मनाते हैं। ये एक साल को अलविदा कह कर दूसरे साल को इस्तिक़बाल करने का मौक़ा होता है। ये ज़िंदगी के गुज़रने और फ़ना की तरफ़ बढ़ने के एहसास को भूल कर एक लमहाती सरशारी में महवे हो जाता है। नए साल की आमद से वाबस्ता और भी कई फ़िक्री और जज़्बाती रवय्ये हैं, हमारा ये इंतिख़ाब इन सब पर मुश्तमिल है।
क्लासिक उर्दू शायरी का शौक़ रखने वाले लोग इन ग़ज़लों को पढ़े बग़ैर नहीं रह सकते हैं | मुम्किन है कि आपने भी ये ग़ज़लें पढ़ी हों, अगर नहीं पढ़ी तो ज़रूर पढ़ें |
मुंतक़िलمنتقل
transported, carried, transferred
अाज़ाद हिन्दुस्तान
मज़ामीन / लेख
उर्दू का हाल और मुस्तक़बिल
सज्जाद ज़हीर
व्याख्यान
Hindustani Filmon Mein Tahzeeb-e-Awadh Ki Akkasi
मनोरंजन
तफ़हीम-ए-कराची
आरिफ़ हसन
अर्थशास्त्र
मुसलमानों का माज़ी हाल और मुस्तक़बिल
मियाँ बशीर अहमद
मुसलमनान-ए-हिन्द का माज़ी हाल और मुसतक़बिल
सय्यद हादी अली
अन्य
Intikhab-e-Kalam
संकलन
उर्दू का मुस्तक़बिल
सालिहा आबिद हुसैन
आलोचना
Intikhab Kulliyat-e-Muntazir
मसअला-ए-सूद और मुसलमानों का मुस्तक़बिल
तुफ़ैल अहमद ख़ाँ
Dil Muntazir Hai
काव्य संग्रह
Nanak: Manzoom Sawaneh Guru Nanak
सिख-मत
Shajar-e-Dard Ke Phool
जामिया मिल्लिया इस्लामिया मुस्तक़बिल की तरफ़
ख़्वाजा मोहम्मद शाहिद
मुस्तक़बिल-ए-इस्लाम
वामबरी
इतिहास
उसने हिसाब लगा कर सोचा था कि दस दिन मुतवातिर उस लड़की को एक ही मक़ाम पर खड़े रह कर देखने और घूरने से इतना मालूम हो जाएगा कि उसका मतलब क्या है। यानी वो क्या चाहता है। इस मुद्दत के बाद वो उसका रद्द-ए-अ’मल मुलाहिज़ा करेगा और इस तज्ज़िए...
ये किताब वो तक़रीबन बीस मर्तबा पढ़ चुका था। इसलिए नहीं कि उसमें कोई ख़ास बात थी। दफ़्तर में जो वीरान पड़ा था। एक सिर्फ़ यही किताब थी जिसके आख़िरी औराक़ कृम ख़ूर्दा थे। एक हफ़्ते से दफ़्तर मनमोहन की तहवील में था क्योंकि उसका मालिक जो कि उसका दोस्त...
मौजदीन का चालान हुआ। डिप्टी कमिश्नर साहब बहादुर ने इल्ज़ामात की संगीनी के तहत जासूस को पंद्रह दिन के रीमांड पर पुलिस के हवाले कर दिया। जहां से वो स्पेशल स्टाफ़ में मुंतक़िल हुआ। पंद्रह दिन की मीआ’द गुज़र जाने पर डिप्टी कमिश्नर साहब ने मज़ीद एक हफ़्ते के रीमांड...
“हाँ, हाँ, क्या जी चाहता है।” मैंने उसकी तरफ़ तमाम तवज्जो मब्ज़ूल करके पूछा है। मगर मेरे इस इस्तिफ़सार पर उसके चेहरे की ग़ैरमामूली तबदीली और गले में सांस के तसादुम ने साफ़ तौर पर ज़ाहिर किया कि वो अपने दिली मुद्दा को ख़ुद न पहचानते हुए अल्फ़ाज़ में साफ़...
ये तो हमारी मिडिल क्लास के क़वानीन हैं कि ये न करो वो न करो... तवील छुट्टियों के ज़माने में फ़ारूक़ ने भी मुझे ख़ूब सैरें कराईं। कलकत्ता, लखनऊ, अजमेर कौन जगह थी जो मैंने उसके साथ न देखी। उसने मुझे हीरे-जवाहरात के गहनों से लाद दिया। अब्बा को लिख...
चारपाई एक ऐसी ख़ुदकफ़ील तहज़ीब की आख़िरी निशानी है जो नए तक़ाज़ों और जरूरतों से ओहदा बर आ होने के लिए नित नई चीज़ें ईजाद करने की क़ाइल न थी। बल्कि ऐसे नाज़ुक मवाक़े पर पुरानी में नई खूबियां दरयाफ़्त कर के मुस्कुरा देती थी। उस अहद की रंगारंग मजलिसी...
न ढोर हैं कि रस्सियाँगले में मुस्तक़िल रहें
ज़ाहिर है अय्याम-ए-ग़दर में वो चाँदनीचौक से गुज़र रहे हैं और उन्हें महसूस हो रहा है कि मुग़लिया सलतनत के ज़वाल के बाद उनकी किसी उम्मीद के बर आने का इमकान नहीं। चाँदनी चौक में वो सन्नाटा है कि कहीं कोई अच्छी सूरत नज़र नहीं आ रही। यकलख़्त उनका ख़्याल...
“आपकी गुफ़्तुगू हर क़िस्म के करिश्मे कर सकती है... दाढ़ में शिद्दत का दर्द था लेकिन आप ख़ुदा मालूम क्यों तशरीफ़ ले आईं और मुझसे लड़ना-झगड़ना शुरू कर दिया कि वो दाढ़ का दर्द दिल में मुंतक़िल होगया।” “मैं ये सिर्फ़ पूछने आई थी कि आपका मुँह क्यों सूजा हुआ...
शादी से पहले मौलवी अबुल के बड़े ठाठ थे। खद्दर या लट्ठे की तहबंद की जगह गुलाबी रंग की सब्ज़ धारियों वाली रेशमी ख़ोशाबी लुंगी, दो घोड़ा बोस्की की क़मीज़, जिसकी आस्तीनों की चुन्नटों का शुमार सैंकड़ों में पहुँचता था। ऊदे रंग की मख़्मल की वास्कट जिसकी एक जेब में...
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