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ग़ज़ल
मिरी हमसरी का ख़याल क्या मिरी हम-रही का सवाल क्या
रह-ए-इश्क़ का कोई राह-रौ मिरी गर्द को भी न पा सका
नरेश एम. ए
नअत
तू ही महबूब-ए-हक़ मतलूब-ए-हक़ मर्ग़ूब-ए-हक़ भी है
तआ'रुफ़ पेश में कैसे करूँ सल्ले-अला तेरा
महबूब महशर
तंज़-ओ-मज़ाह
क्या ही कुंडल मार कर बैठा है जोड़ा साँप का रग-ए-गुल से बुलबुल के पर बांधते हैं...