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ग़ज़ल
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था
मिर्ज़ा ग़ालिब
तंज़-ओ-मज़ाह
हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे ग़ालिब: (बा-आवाज़-ए-बुलंद) खाना लाओ।...
आल-ए-अहमद सुरूर
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ग़ज़ल
'नज़ीर' इस रेख़्ते को सुन वो हँस कर यूँ लगी कहने
अगर होते तो मैं देती तुझे इक थाल भर मोती
नज़ीर अकबराबादी
कुल्लियात
सन्नाअ-ए-तुर्फ़ा हैं हम आलम में रेख़्ते के
जो 'मीर' जी लगेगा तो सब हुनर करेंगे