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नज़्म
मरहूम और महरूम
मैं जब भी छूता हूँ अपने बदन की मिट्टी को
तो लम्स फिर उसी ठंडे बदन का होता है
ज़ुबैर अली ताबिश
ग़ज़ल
वही हुआ कि तकल्लुफ़ का हुस्न बीच में था
बदन थे क़ुर्ब-ए-तही-लम्स से बिखरते हुए
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
लम्स की लौ में पिघलता हुज्रा-ए-ज़ात-ओ-सिफ़ात
तुम भी होते तो अंधेरा देखने की चीज़ थी