aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "वक़्त-ए-सहर"
मरमरीं मरक़दों पे वक़्त-ए-सहरमय-कशी की बिसात गर्म करें
हमेशा वक़्त-ए-सहर जब क़रीब होता हैहवाएँ चलती हैं सारा जहान सोता है
तुम वक़्त-ए-सहर रौज़न-ए-दीवार में देखोलाली सी कहीं सुब्ह के आसार में देखो
लज़्ज़त का ज़हर वक़्त-ए-सहर छोड़ कर कोईशब के तमाम रिश्ते फ़रामोश कर गया
वक़्त-ए-सहर इक ऐसी उठी रौशनी कि बसजिस आँख ने भी देखा यूँ चुँधिया गई कि बस
शायरी में इश्क़ की कहानी पढ़ते हुए आप बार बार सहरा से गुज़रे होंगे। ये सहरा ही आशिक़ की वहशतों और उस की जुनूँ-कारी का महल-ए-वक़ू है। यही वह जगह है जहाँ इश्क़ का पौदा बर्ग-ओ-बार लाता है। सहरा पर ख़ूबसूरत शायरी का ये इन्तिख़ाब पढ़िए।
ग़ज़ल का सफ़र बहुत पुराना है | इस सफ़र में ग़ज़ल का शिल्प वही रहा किन्तु उसके विषय बदलते गए | ग़ज़ल का इतने वक़्त तक बने रहने की एक वजह ये भी है कि इस शिल्प ने शायरों को काफ़ी आज़ादी दी, जिससे वे अपनी कल्पनाओं को ख़ूबसूरत रूप दे सके |
शायरी में वतन-परस्ती के जज़्बात का इज़हार बड़े मुख़्तलिफ़ ढंग से हुआ है। हम अपनी आम ज़िंदगी में वतन और इस की मोहब्बत के हवाले से जो जज़्बात रखते हैं वो भी और कुछ ऐसे गोशे भी जिन पर हमारी नज़र नहीं ठहरती इस शायरी का मौज़ू हैं। वतन-परस्ती मुस्तहसिन जज़्बा है लेकिन हद से बढ़ी हुई वत-परस्ती किस क़िस्म के नताएज पैदा करती है और आलमी इन्सानी बिरादरी के सियाक़ में उस के क्या मनफ़ी असरात होते हैं इस की झलक भी आपको इस शेअरी इंतिख़ाब में मिलेगी। ये अशआर पढ़िए और इस जज़बे की रंगारंग दुनिया की सैर कीजिए।
वक़्त-ए-सहरوقت سحر
morning time
वक़ा-ए-कैप
ब्रज बहुगुण लाल
सफ़र-नामा / यात्रा-वृतांत
इक मुर्ग़-ए-चमन वक़्त-ए-सहर बोल रहा हैसय्याद का हर राज़-ए-निहाँ खोल रहा है
क्या वक़्त-ए-सहर हौसला बाक़ी हो दुआ काजब कर के दुआ देखते हों रू-ए-सहर हम
वक़्त-ए-सहर, ख़ामोश धुँदलका एक सितारा काँप रहा हैजैसे कोई बोसीदा कश्ती तूफ़ानों में डोल रही हो
मिन्नत-ए-गोश नहीं क़ाफ़िला-ए-वक़्त-ए-'सहर'लम्हा लम्हा वो मगर बाँग-ए-दरा माँगे है
ये दहर वो है जिधर बाद-ए-ख़ुश-गवार-ए-सहरदरीचे खोल के यादों के आह भरती है
शफ़्फ़ाफ़ आसमाँ पे ब-वक़्त-ए-तुलूअ'-ए-शम्सउस मह-जबीं के नूर-ए-नुमायाँ का अक्स है
सियाह रात है आओ लिपट के सो जाओउफ़ुक़ के पार निगार-ए-सहर को क्या मा'लूम
गया वो दौर-ए-ग़म-ए-इन्तिज़ार-ए-यार 'सहर'और अपनी ज़ात पे दानिस्ता ज़हमतें भी गईं
बनाए जाऊँ किसी और के भी नक़्श-ए-क़दमये क्यूँ कहूँ कि मिरा हम-सफ़र न था कोई
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