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नज़्म
तसलसुल
हरे शीतल मनोहर कितने जंगल आज वीराँ है
वो कैसी लहलहाती खेतियाँ थीं अब जो पिन्हाँ हैं
सलाम मछली शहरी
नज़्म
विज्दान
जैसे गर्म गर्म हथेली बीच किसी के नाम की मेहंदी
जैसे कोरी नर्म दहकती पोरों की शीतल आँखों में
इशरत आफ़रीं
नज़्म
क़ौमी तराना
ऐ मिरे हिन्दोस्ताँ जन्नत-निशाँ
बह रही हैं तेरे सीने पर वो शीतल नद्दियाँ
अल्ताफ़ मशहदी
ग़ज़ल
मेरे शीतल मन की ज्वाला को तो और भी भड़काया
लोग न जाने क्या कहते हैं गँगा-जल के बारे में