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कछुए

MORE BYइन्तिज़ार हुसैन

    स्टोरीलाइन

    इस अफ़साने में कछुवे और मुर्ग़ाबी की कहानी को आधार बना कर समय बे-समय बोलने वालों के अंजाम को चिन्हित किया गया है। विद्या सागर भिक्षुओं को जातक कथाएं सुना कर नसीहत करता है कि जो भिक्षु समय बे-समय बोलेगा, वो गिर पड़ेगा और पीछे रह जाएगा। जिस तरह कछुवा मुर्ग़ाबी की चोंच से नीचे गिर गया था, उसी तरह किसी के साथ भी हो सकता है।

    विद्या सागर चुप हो गया था। उसने भिक्षुओं को ऊँची आवाज़ों से बोलते सुना, लड़ते देखा और चुप हो गया, सुनता रहा, और चुप रहा, फिर उनके बीच से उठा और नगर से बाहर नगर बासियों से एक शाल के पेड़ के नीचे समाधि लगा कर बैठ गया, और कंवल के एक फूल पर नज़रें जमाईं जो फूला, मुस्काया और मुरझा गया, एक फूल के बाद दूसरा फूल, दूसरे के बाद तीसरा फूल। जिस फूल पर वो दृष्टि जमाता वो फूलता, मुस्काता और मुरझाता। ये देख उसने शोक किया और आँखें मूँद लीं, निसदिन आँखें मूँदे बैठा रहा, दिनों बाद बीते दिनों के संघी सुंदर समुंदर और गोपाल उसके पास आए बोले, है विद्या सागर हम दुख में हैं।

    विद्या सागर प्रशांत मूर्ति बना बैठा रहा, ज़बान से कुछ नहीं बोला, गोपाल ढ़ई आवाज़ में बोला, कैसा अंधेर है कि जिन्हें नहीं बोलना चाहिए वो बहुत बोल रहे हैं, जिसे बोलना चाहिए वो चुप हो गया। और सुंदर समुंदर बोला, सुभद्रा ने कहा और उन्होंने किया, सुभद्रा ने कहा था कि तथागत अब हमारे बीच में नहीं है, वो सदा टोकता रहता था कि ये करो और ये मत करो। अब जो हमारे जी में आएगी वो हम करेंगे, हे विद्या सागर, अब सब भिक्षु वही करते हैं जो उनके जी में आती है और उनका जी तृष्णा के चंगुल में है, घास का बिस्तर उन्होंने छोड़ दिया, अब वो खाट पे सोते हैं और जाजिम पे बैठते हैं, हे गुनी, हे ज्ञानी तू क्यों नहीं बोलता।

    विद्या सागर ने आख़िर को आँखें खोलीं, सुंदर समुंदर और गोपाल को ग़ौर से देखा, पूछा, बंधुओ, तुमने तोते की जातक सुनी है?

    नहीं!

    तो फिर सुनो, विद्या सागर सुनाने लगा, बीते समय की बात है कि बनारस में ब्रह्म दत्त का राज था और हमारे बुद्धदेव जी ने तोते के रूप में जन्म लिया था, उनका एक छोटा भाई था, दोनों छोटे से थे कि एक चिड़ी मार ने उन्हें पकड़ा और बनारस के एक ब्रह्मण के हाथ बेच दिया, ब्रह्मण ने दोनों तोतों को ऐसे पाला जैसे औलाद को पालते हैं, एक बार ब्रह्मण को परदेस जाना पड़ा, जाते हुए तोतों से कह गया कि मिट्ठूओ तनिक अपनी माता का ध्यान रखना। ब्रह्मण के जाने के बाद वो नारी खुल खेली, छोटे तोते ने उसे टोकने के लिए पर तोले, बड़े ने कहा कि बंधु तू बीच में मत बोल, पर छोटा माना और नारी को टोक बैठा, उस चातुर नारी ने भोली बन कर कहा कि अच्छा अब मैं कोई पाप नहीं करूँगी, तूने टोक दिया अच्छा किया, बाहर आ, तुझे प्यार करूँ, वो भोला बाहर गया, नारी ने झट उसकी गर्दन मरोड़ दी।

    जब दिनों बाद ब्रह्मण वापस आया तो उसने बड़े से पूछा कि मियाँ मिट्ठू तुम्हारी माता ने मेरे पीछे क्या किया, तोता बोला कि महाराज जहाँ खोट हो वहाँ बुद्धिमान चुप रहते हैं कि ऐसी अवस्था में बोलने में जान का खटका है। तोते ने ये कह कर जी में सोचा कि जहाँ बोल नहीं सकते, वहाँ जीना अजीर्ण है, वहाँ चलो जहाँ बोल सको, पर फड़ फड़ाए, ब्रह्मण से कहा कि महाराज डंडवत, हम चले। ब्रह्मण ने पूछा कि मियाँ मिट्ठू कहाँ चले, बोला कि वहाँ जहाँ बोल सकें, ये कह कर बोद्धिसत्व जी बनारस की भरी बस्ती को छोड़ जंगल की ओर उड़ गए।

    ये जातक सुना कर विद्या सागर शाल के पेड़ के नीचे से आगे चल पड़ा, चलता रहा, चलता रहा काले कोसों जाकर एक निर्जन बन में बास किया, सुंदर समुंदर और गोपाल भी हरज-मरज खींचते पीछे वहाँ पहुँचे। विद्या सागर तीन रात बीरासन मारे आँखें मूँदे बे खाए-पिए बैठा रहा, चौथे दिन सुंदर समुंदर और गोपाल अपने-अपने भिक्षा पात्र लेकर उस बन से निकले और शाम पड़े भरे भिक्षा पात्रों के साथ वापस आए, विद्या सागर के पास बैठ कर बोले कि हे विद्या सागर क्या तथागत ने नहीं कहा था कि पेट भरने के लिए खाओ और प्यास बुझाने के लिए पियो। ये सुन कर विद्या सागर ने आँखें खोलीं, जो सामने रखा था उसे खाया ऐसे जैसे उसमें कोई स्वाद हो और नदी का निर्मल जल पिया जैसे वो गर्म पानी हो, फिर कहा कि मिट्टी को मिट्टी में अर्पण किया।

    सुंदर समुंदर ने ये मौक़ा अच्छा जाना और कहने लगा कि हे विद्या सागर, भिक्षु सत पथ से फिर गए हैं, तथागत के बनाए हुए नियमों का पालन नहीं करते, पेड़ की छाँव छोड़ी, छतों तले ऊँची खाटों पे आराम करते हैं, एक संघ के अंदर कितने संघ बन गए और कितनी मंडलियाँ पैदा हो गईं, हर मंडली दूसरी मंडली की जान की बैरी है, तू पलट चल और उन्हें शिक्षा दे कि तू हमारे बीच गुनी और ज्ञानी है।

    विद्या सागर बोला कि हे सुंदर समुंदर तूने मैना की जातक सुनी है?

    नहीं!

    तो सुन, अगले जन्म की बात है कि बनारस में राजा ब्रह्म दत्त बिराजता था और हमारे बोध जी मैना के जन्म जंगल में बास करते थे, एक पेड़ की घनी टहनी में एक सुंदर घोंसला बनाया और उसमें रहने सहने लगे, एक बार बहुत वर्षा हुई, एक बंदर भीगता हुआ कहीं से आया और उसी पेड़ पर मैना के घोंसले के बराबर बैठ गया पर यहाँ भी वो बूंदों से भीग रहा था। मैना बोली कि हे मन्नू, वैसे तो तू आदमी की बहुत नक़्क़ाली करता है मगर घर बनाने में उसकी नक़्क़ाली नहीं करता, आज तेरा घर होता तो वर्षा से ये तेरी दुर्दशा क्यों होती। बंदर बोला कि मैना री मैना, मैं नक़ल करता हूँ पर अक़ल नहीं रखता। मगर फिर बंदर ने ये कहने के बाद सोचा कि मैना अपने घर में बैठी बातें बना रही है। उसका घर हो, और मेरी तरह भीगे फिर देखूँ कैसे बातें बनाती है। ये सोच के उसने मैना के घोंसले को खसोट डाला, बोद्धिसत्व जी उस मूसला धार मेंह में घर से बे-घर हो गए, उन्होंने एक गाथा पढ़़ी जिस का तत ये है कि हर ऐरा ग़ैरा को नसीहत करना मुफ़्त में मुसीबत मोल लेना है, यह गाथा पढ़़ते वो उस जंगल से भीगते हुए दूसरे जंगल की और उड़ गए।

    विद्या सागर ने ये जातक सुन कर ठंडा साँस भरा और कहा कि बुद्धदेव जी ने बंदरों के साथ क्या किया और बंदरों ने बुद्धदेव जी के साथ क्या किया, फिर ये जातक सुनाई,बनारस के राज सिंघासन पर ब्रह्मदत्त बिराजता था और बुद्धदेव जी ने बंदर का जन्म ले के जंगल बसाया हुआ था, बड़े होके वो एक मोटे ताज़े बंदर हुए और राजा के आमों के बाग़ में बसने वाले बंदरों के राजा बने, एक बार आमों की रुत में राजा बाग़ में आया और बंदरों को देख कर बहुत कलसा कि वो आमों का नाश कर रहे हैं, अपने पार्थियों से कहा कि बाग़ के गिर्द घेरा डालो और ऐसे तीर चलाओ कि कोई बंदर बच के जाए।

    बंदरों ने ये बात सुन ली, बोद्धिसत्व के पास गए और पूछा कि हे बंदर राजा, बता अब हम क्या करें, बोद्धिसत्व जी ने कहा कि चिंता मत करो, अभी उपाय करता हूँ, ये कह के वो एक ऐसे पेड़ पे चढ़े जिसकी टहनियाँ गंगा के पाट पे दूर तक फैली हुई थीं, पाट पे फैली हुई आख़िरी टहनी से दूसरे किनारे छलाँग लगा के फ़ासला नापा और उस नाप का एक बाँस तोड़ दरिया पार की एक झाड़ी से बाँध पाट के ऊपर से आम की टहनी तक लाने का जतन किया, पर नाप में थोड़ी सी चूक हो गई, बाँस और टहनी के बीच उनके धड़ बराबर फ़ासला रह गया। बोद्धिसत्व जी ने क्या किया कि बाँस के कोने के साथ अपनी एक टाँग बाँधी और अगले हाथों से आम की टहनी पकड़ी। बंदरों से कहा कि लो मैं पुल बन गया हूँ, तुम मेरे ऊपर से होके बाँस पे जाओ, बाँस पे से गंगा पार कूद जाओ।

    बाग़ में घिरे हुए अस्सी हज़ार बंदर बोद्धिसत्व जी की पीठ से सहज-सहज गुज़रे ये सोच के कि उन्हें दुख पहुँचे, पर बंदरों में देवदत्त भी था, उसने भी उस समय बंदर का जन्म लिया था, उसने सोचा कि क्यों ने इसी जन्म में बुद्ध का काम तमाम कर दिया जाए। वो इस ज़ोर से बोद्धिसत्व जी की पीठ पे कूदा कि वो अधमुए हो गए।

    राजा ये सब कुछ देख रहा था, उसने जल्दी से बोद्धिसत्व जी को ऊपर से नीचे उतारा, गंगा में अश्नान कराके ज़र्द बाना ओढ़़ाया, सौगंध लगाई और दवा दारू पिलाई, फिर उनके चरणों में बैठा और कहा कि हे बंदर राजा, तू अपनी प्रजा के लिए पुल बना, पर तेरी प्रजा ने तेरे साथ क्या किया, बोद्धिसत्व जी बोले कि हे राजा इसमें तेरे लिए एक सिक्षा है, राजा को चाहिए कि प्रजा को दुखी होने दे, चाहे इसके कारण उसे जान हारनी पड़े, ये कह के बोद्धिसत्व जी ने आख़िरी हिचकी ली और बंदर के जन्म से दूसरे जन्म में चले गए।

    इस जातक ने विद्या सागर सुंदर समुंदर और गोपाल तीनों को दुखी कर दिया, उन्होंने शोक किया कि तथागत ने जग को निस्तारने के कारण कितने जन्म लिए और कैसे-कैसे दुख भोगे, पर हर जन्म में देवदत्त ऐसे दुष्ट पैदा होते रहे और तथागत के लिए कठिनाइयाँ पैदा करते रहे, सुंदर समुंदर ने पूछा, हे विद्या सागर, क्या देवदत्त बुद्धदेव जी का भाई नहीं था?

    भाई ही था। ये कह कर विद्या सागर पहले हँसा फिर रोया।

    हे ज्ञानी तू हँसा क्यों और रोया क्यों? गोपाल ने पूछा।

    जब बकरी हँस और रो सकती है तो मैं कि मनुष्य जाती से हूँ क्यों हँस और रो नहीं सकता।

    सुंदर समुंदर को कुरेद हुई, बकरी क्यों हँसी और क्यों रोई?

    विद्या सागर ने जवाब में एक जातक सुनाई, हे संतो, बीते समय की बात है कि बनारस में ब्रह्म दत्त का राज था, एक ब्रह्मण ने कि वेदों की विद्या में रचा-बसा था, मुर्दों को भोजन देने के ध्यान से एक बकरी ख़रीदी, बकरी को अश्नान कराया, गले में गजरा डाला, बकरी अपने भेंट की ये तैयारियाँ देख के पहले हँसी फिर रोई, ब्रह्मण ने पूछा कि हे बकरी तू हँसी क्यों और रोई क्यों। बकरी बोली कि हे ब्रह्मण, अगले जन्म में मैं भी ब्रह्मण थी और मैं भी वेदों की विद्या में पैरी हुई थी और मैंने भी एक बार मुर्दों को भोजन देने के लिए एक बकरी ली थी और उसका गला काटा था। पर एक बार बकरी का गला काटने के बदले में मेरा गला पाँच सौ बार काटा गया, आज पाँच सौ इक्कीसवीं बार मेरे गले पर छुरी फिरेगी, मैं ये ध्यान करके हँसी कि आज आख़िरी बार मेरा गला कट रहा है, इसके बाद इस दुख से मेरा निस्तारा हो जाएगा। और मैं ये ध्यान करके रोई कि मेरा गला काटने के बदले में अब तुझे पाँच सौ बार गला कटाना पड़ेगा।

    ब्रह्मण बोला कि हे बकरी तू डर मत, मैं तेरा गला नहीं काटूँगा।

    बकरी ज़ोर से हँसी और बोली कि मुझ बकरी का गला तो कटना ही है, तेरे हाथों नहीं कटेगा तो किसी और के हाथों कटेगा। ब्रह्मण ने बकरी की सुनी अनसुनी की, उसे आज़ाद किया और चेलों से कहा कि देखो इसकी रक्षा करो, चेलों ने उसकी बहुत रक्षा की, पर होनी हो कर रही, उस बकरी ने चरते-चरते एक टहनी पर मुँह मारा, वो पेड़ उसपर गिरा और वो वहीं ढ़ेर हो गई।

    हे संतो, अब सुनो कि उसी पेड़ के बराबर एक सुंदर पेड़ खड़ा था, ये बोद्धिसत्व जी थे जिन्होंने तरुवर के रूप में जन्म लिया था, उन्होंने तुरत तरुवर का जन्म छोड़ा और हवा के बीच आसन जमा के बैठे, जनता ने ये देख अचंभा किया और इखट्टी होने लगी, बोद्धिसत्व जी ने उस घड़ी एक मंगल गाथा पाठ की जिसका अर्थ ये है कि पुरुरशो हिंसा का अंत देखो जो दूसरे का गला काटेगा एक दिन उसका भी गला काटा जाएगा।

    सुंदर समुंदर और गोपाल ने ये जातक ध्यान से सुनी और श्रद्धा से सर झुका लिया मगर फिर सुंदर समुंदर बोला कि हे ज्ञानी, मेरा सवाल जूँ का तूँ है, क्या देवदत्त बुद्धदेव जी का भाई नहीं था?

    विद्या सागर बोला, हे सुंदर समुंदर, ये प्रश्न मत कर, नहीं तो मैं पहले हँसूँगा और फिर रोऊँगा।

    हे ज्ञानी, तू क्यों हँसेगा और क्यों रोएगा?

    मैं ये बता के हँसूँगा कि देवदत्त हमारे बुद्धदेव जी का भाई था और ये ध्यान करके रोऊँगा कि वो भिक्षु भी था।

    सुंदर समुंदर ये सुन कर रोया और बोला कि हे प्रभु, भिक्षुओं को क्या हो गया है?

    विद्या सागर ने सुंदर समुंदर को घूर कर देखा, हे सुंदर समुंदर ये मत पूछ।

    क्यों पूछूँ?

    मत पूछ कि कभी यूँ भी होता है कि बुराई का खोज करते-करते अंत में हमें अपना ही आपा दिखाई देता है।

    ये कैसे?

    ये ऐसे कि बनारस के राजा ब्रह्म दत्त की रानी किसी दूसरे मर्द से मिल गई। राजा ने उससे पूछ-गच्छ की तो उसने कहा कि मैं किसी पराए से मिली हूँ तो मैं मरने के बाद चुड़ैल बन जाऊँ और मेरा मुँह घोड़ी का हो जाए और ऐसा हुआ कि रानी मरके सचमुच चुड़ैल बन गई और उसका मुँह घोड़ी का सा हो गया, वो एक बन में जाके एक खोह में रहने लगी। आते-जाते को पकड़ती और खा लेती, एक दिन एक ब्रह्मण तक्षीला से विद्या प्राप्त करके रहा था, चुड़ैल उसे कमर पे लाद के अपनी खोह में ले गई, पर ब्रह्मण जवान था जब अंग से अंग मिला तो चुड़ैल गरमा गई, खोह में ले जा के उससे खेलने लगी। ब्रह्मण विद्वान था पर जवान भी तो था, विद्या अपनी जगह, जवानी अपनी जगह, वो भी गरमा गया, चूमा-चाटी की और भोग किया, उस भोग से चुड़ैल को गर्भ रहा, नौ महीने बाद उसने पुत्र जना, ये पुत्र वास्तव में हमारे बुद्धदेव महाराज थे जिन्होंने अबकी बार चुड़ैल के पुत्र के रूप में जन्म लिया था।

    बोद्धिसत्व जी ने बड़े हो के बाप को चुड़ैल के चंगुल से निकालने और मनुष्य जाती के बीच जाने की ठानी, चुड़ैल ने कहा मेरे लाल तूने मनुष्य जाती के बीच जाने की बात ठान ही ली है तो अपनी मैया की बात सुन ले कि चुड़ैलों के बीच गुज़ारा करना आसान है आदमी के साथ गुज़ारा करना कठिन काम है। मैं तुझे एक टोटका बताती हूँ जो इस दुनिया में तेरे काम आएगा, इस टोटके के बल पे तू आदमी के पाँव के निशान बारह खूँट तक देख सकता है।

    अपनी मैया से ये टोटका ले के पूत पिता के संग बनारस पहुँचा और अपना गुन बताके राजा के दरबार में चाकरी करली, दरबारियों ने ये देख के खुसर-फुसर की और राजा से कहा कि महाराज परखना तो चाहिए कि इस आदमी के पास ये गुन है भी या नहीं, राजा ने उसकी परिक्षा के लिए क्या किया कि ख़ज़ाने का माल चोरी किया और दूर जा के एक तलैया में डुबो दिया, दूसरे दिन शोर मचा कि ख़ज़ाने में चोरी हो गई, बोद्धिसत्व जी से कहा कि चोरी हो गई। बोद्धिसत्व जी से कहा कि चोर का पता लगाओ। बोद्धिसत्व जी ने झट पट पाँव के निशान देखे और तलैया से माल बरामद कर दिया।

    राजा ने कहा कि तूने चोर का पता बताया, बोद्धिसत्व जी ने कहा कि महाराज माल मिल गया चोर का पता पूछ के क्या करोगे, राजा माना, कहा कि चोर का पता बता, बोद्धिसत्व जी ने कहा कि हे राजा, मैं एक कहानी सुनाता हूँ, तू बुद्धिमान है, जान लेगा कि इसका अर्थ क्या है, एक नर्तकार गंगा में अश्नान करते हुए डूबने लगा, उसकी भारद्वाज ने ये देखा तो चिल्लाई कि स्वामी तुम तो डूब रहे हो। मुझे बाँसुरी बजा के कोई धुन सिखा दो कि मेरे पास कुछ गुन जाए और तुम्हारे बाद मैं पेट पाल सकूँ। नर्तकार डुबकियाँ खाते हुए बोला कि अरी भागों भरी, मैं बाँसुरी क्या बजाऊँ और क्या धुन सुनाऊँ। पानी जो जीव-जंतु को तरावत देता है और मरी मिट्टी में जान डालता है मुझे मार रहा है, फिर उसने एक गाथा पढ़ी कि जिसका अर्थ ये है कि जो मेरा पालनहार था वही मेरा जान लेवा बन गया।

    बोद्धिसत्व जी ने ये सुना के कहा कि महाराज, राजा भी प्रजा के लिए पानी समान है, अगर पालनहार ही जान लेवा बन जाए तो प्रजा कहाँ जाए। राजा ने कहानी सुनी पर उसे चैन आया, बोला कि मित्र, कहानी अच्छी थी पर मैं तुझसे चोर की पूछता हूँ वो बता।

    बोद्धिसत्व जी ने कहा कि महाराज जो मैं कहता हूँ वो कान लगा के सुनो और फिर उन्होंने ये कहानी सुनाई। बनारस में एक कुम्हार रहता था, रोज़ नगर से निकल के जंगल जाता और अपने बर्तन भांडों के लिए मिट्टी खोद के लाता, एक ही अस्थान से मिट्टी खोदते-खोदते एक गड्ढ़ा बन गया था, एक दिन उस गड्ढ़े में उतर के मिट्टी खोद रहा था कि आँधी चल पड़ी और ऊपर से एक तोदा उस पर गिर पड़ा। बेचारे का सर फट गया, वो चिल्लाया और यह गाथा पढ़़ी कि जिस धरती से कोंपल फूटती है और जीव को चुग्गा मिलता है उसी धरती ने मुझे कुचल डाला, जो मेरा पालनहार था वही मेरा जान लेवा बन गया, और फिर बोद्धिसत्व जी ने कहा कि महाराज राजा प्रजा के लिए धरती समान है, वो प्रजा को पालता है, पर राजा प्रजा को मूसने लगे तो प्रजा कहाँ जाए।

    राजा ने कहानी सुनी और कहा कि कहानी मेरी बात का जवाब नहीं। तू चोर पकड़ और मेरे सामने ला, बोद्धिसत्व जी ने कहा, महाराज उसी बनारस के नगर में एक जना था, एक बार वो बहुत भात खा गया, उसकी ऐसी दुर्दशा हुई कि जान के लाले पड़ गए, वो चिल्लाता था और कहता था कि जिस भात से अनगिनत ब्रह्मणों को सकत मिलती है उसी भात ने मेरी सकत छीन ली, और हे महाराज, राजा भी प्रजा के लिए भात समान है, वो उसकी भूक दूर करता है और सकत देता है, पर अगर राजा ही प्रजा का भात छीन ले तो प्रजा कहाँ जाए?

    राजा ने ये कहानी भी एक कान से सुनी और दूसरे कान उड़ाई, कहा कि मित्र मुझे कहानियों पर मत टर्ख़ा, चोर का पता बता। बोद्धिसत्व जी बोले, महाराज हिमालय पहाड़ पे एक पेड़ था, उसमें बहुत सी टहनियाँ थीं, उन टहनियों में बहुत सी चिड़ियाँ बसेरा करती थीं। एक बार दो मोटी टहनियों ने एक दूसरे से रगड़ खाई और उनसे चिंगारियाँ निकलने लगीं। ये देख कर एक चिड़िया चिल्लाई कि पंछियो, याँ से उड़ चलो कि जिस तरुवर ने हमें शरण दी थी, वही अब हमें जलाने पर तुला है, जो हमारा पालनहार था वो हमारा जान लेवा बन गया है, और हे महाराज, जिस प्रकार पेड़ चिड़ियों को शरण देता है उसी प्रकार राजा प्रजा को शरण देता है, पर अगर शरण देने वाला ही चोर बन जाए तो चिड़ियाँ कहाँ जाएं।

    वो मूर्ख राजा इस पे भी कुछ समझा, वही मुर्ग़े की एक टाँग कि चोर का नाम बता। बोद्धिसत्व जी ने हार के कहा कि अच्छा सब प्रजा को इकट्ठा करो, फिर मैं चोर का नाम बताऊँगा। राजा ने डूंडी पिटवा के सारी प्रजा को इकट्ठा कर लिया, तब बोद्धिसत्व जी ने ऊँची आवाज़ से कहा कि हे बनारस नगर के बासियों, कान लगा के सुनो और ध्यान दो, जिस धरती में तुमने अपना धन दाबा था उसी धरती ने तुम्हारा धन मूस लिया। लोग ये सुन के चौंके, उन्होंने ताड़ लिया कि बोद्धिसत्व जी ने क्या कहा, वो राजा पर पिल पड़े, फिर उसे हटा के बोद्धिसत्व जी को राज सिंघासन पर बिठाया और उनकी जय बोली।

    ये सुनते-सुनते सुंदर समुंदर और गोपाल दोनों ने उत्साह से तथागत की जय बोली, विद्या सागर ने दोनों को देखा ये जानने के लिए कि उनमें पूछने की चटक अभी तक है या जाती रही, फिर कहा कि भिक्षुओ बताने वाला हमें-तुम्हें सब कुछ बता के परलोक सिधारा है, सो अब किसी से मत पूछो और अब अपना दिया आप बनो कि अमिताभ ने सिधारते समय आनंद से यही कहा था। सुंदर समुंदर और गोपाल दोनों तथागत के सिधारने का ध्यान करके दुखी हुए और बोले कि जिस दीए ने जग में जोत जगाई थी और हमें डगर दिखाई थी, वो दीया बुझ गया, अब सृष्टि में अंधकार है, हम अपने दीयों के धुंदले उजालों में भटकते हैं, अंधेरी चल रही है और अंधकार बढ़़ता जा रहा है और हमारे टिमटिमाते दीयों की लौ मंदी होती चली जा रही है।

    विद्या सागर ने उन्हें टोका और कहा कि संतो, तुम अमिताभ के लिए कैसी बात ध्यान में लाते हो, वो तो अमर जोती हैं, वो कैसे बुझ सकते हैं। ये सुन कर सुंदर समुंदर और गोपाल दोनों अपनी चूक पर पछताए। एक श्रद्धा के साथ अमिताभ को ध्यान में लाए और धरती से अंबर तक उन्होंने एक उजाला फैला देखा, उनकी देही काँपने लगी और आँखों में आँसू उमंड आए, विद्या सागर के संग मिल कर उन्होंने प्रार्थना की कि हम भिक्षु तथागत अमिताभ की प्रार्थना करते हैं जो देवस्थान में बास करते हैं, जहाँ हर समय उनपर सुगंधित फूल बरसते हैं, हे आत्मा रूपी, हे हमारे शाक्य मुनी, हे विद्या सागर, हे अमिताभ, हम तुमको सम्मान के साथ बुलाते हैं, तुम हमारे अस्थान में आके बास करो और हमारे अंदर जोत जगाओ।

    फिर वो चुप हो गए पर आँसुओं की गंगा देर तक बहती रही, फिर उन्होंने उन दिनों को याद किया जब अमिताभ उनके बीच मौजूद थे और नगर-नगर, डगर-डगर, क्या बस्ती क्या जंगल सब जगह उजाला फैला था, विद्या सागर बोला, उन दिनों हम अमिताभ के संग रात-रात भर चलते थे, अंधेरी रातों में घने बनों से गुज़रते थे पर कभी मुझे ये नहीं लगा कि अंधेरे में चल रहा हूँ, डगर ऐसे दिखाई देती थी जैसे पूर्णिमाशी का चाँद निकला हुआ हो, पेड़-पौदे, फूल-पत्ते, जानवर कि पूरी धरती और सारा अंबर उजियारा है और अमिताभ की जय धुनी करता है।

    गोपाल सुनते-सुनते उन दिनों को ध्यान में लाया, कहने लगा, संतो, उन दिनों हम कितना चलते थे, निसदिन चलते ही रहते थे, कभी घने जंगलों में, कभी मैदानों में और कभी भिक्षा पात्र लिए नगर-नगर, गली-गली। सुंदर समुंदर कल से तुरत आज में गया। दुख से बोला, अब भिक्षुओं ने चलना छोड़ दिया, उनके पाँव थक गए हैं, शरीर फैल गए हैं और तोंदें फूल गई हैं। इस पे विद्या सागर ने कहा, बन्धुओ, तथागत ने कहा कि जो जीव बहुत खा-खा के मोटा हो गया है और बहुत सोता है वो जन्म चक्र में फँसा रहेगा, सुअर के समान बार-बार पैदा होगा और बार-बार मरेगा।

    सुंदर समुंदर ने कहा, हे ज्ञानी, वो बहुत खाते हैं और खाट पे सोते हैं और गद्दों पर लोटते हैं और नारी से हँस के बोलते हैं।

    नारी से हँस के बोलते हैं? विद्या सागर ने डरी आवाज़ में कहा।

    हाँ प्रभु, नारियों से हँस के बोलते हैं और मैंने तो ये भी देखा है कि ख़ुद संघ की भिक्षु नारियाँ मुस्का के बात करती हैं और झाँझन पहनती हैं। विद्या सागर ने आँखें मूँद लीं और दुख की आवाज़ में बड़बड़ाया, हे तथागत, तेरे भिक्षु तुझसे फिर गए हैं, मैं इस भवसागर में अकेला हूँ। सुंदर समुंदर और गोपाल ने भी आँखें मूँद लीं और गिड़गिड़ाए, हे तथागत, हम अकेले हैं और दुखी हैं और हमारे इर्द-गिर्द भौ सागर उमंडा हुआ है। वो आँखें मूँदे बैठे रहे, फिर सुंदर समुंदर ने आँखें खोलीं और कहा कि गोपाल तूने ये ध्यान किया कि हम आज पूरी बस्ती में फिरे हैं, हमें भिक्षा में सब कुछ मिला पर खीर नहीं मिली।

    गोपाल ने हाँ में हाँ मिलाई, तूने सच कहा, खीर हमें किसी घर से नहीं मिली, और खीर तो अब कभी-कभी ही देखने में आती है। सुंदर समुंदर ने सवाल उठाया, मैं पूछता हूँ खीर अब घरों में क्यों नहीं पकती, क्या लोग तथागत को भूल गए हैं या गय्यों ने दूध देना कम कर दिया है। गोपाल बीते दिनों को याद करके कहने लगा, उन दिनों सब नर-नारी तथागत के नाम की माला जपते थे और गय्यों के थन दूध से भरे रहते थे और घरों में खीर इतनी पकती थी कि घर-बाहर वाले जी भर के खाते थे, फिर भी बच रहती थी।

    और हम कितना स्वाद लेकर खीर खाते थे। सुंदर समुंदर के मुँह में पानी भर आया। विद्या सागर ने घूर कर उसे देखा, स्वाद? मूर्ख, क्या तू स्वाद ले के भोजन करता है?

    नहीं प्रभु। सुंदर समुंदर ने झेंप कर कहा, मैंने भोजन कभी स्वाद ले के नहीं खाया। सदा यही ध्यान करके खाया कि मिट्टी में मिट्टी मिल रही है और पेट भर रहा हूँ, पर जब खीर आती थी तो मेरे ध्यान में वो खीर जाती थी जो सुजाता ने तथागत को खिलाई थी और मेरे तालू और जीभ को कुछ होने लगता था। विद्या सागर ने दोनों को समझाते हुए कहा कि बंधुओ, भूले मज़ों को मत याद करो। कहीं ऐसा हो कि तुम फिर इन्द्रियों के फैले जाल में फँस जाओ। दोनों ने कान पकड़े और कहा, प्रभु हम हर स्वाद को त्याग चुके हैं, बस तथागत के स्वाद में ध्यान लेते हैं।

    एक बार शाक्य मुनी उनके ध्यान में फिर गए, जो उठते-बैठते भिक्षुओं को उपदेश देते कि संसार असार है और संसार के स्वाद खोखले हैं, गोपाल बोला, सुंदर समुंदर तुझे वो घड़ी याद है जब तथागत ने तुझे नारी स्वाद के जाल से निकाला था?

    नारी स्वाद के जाल से? सुंदर समुंदर ने याद करने की कोशिश की।

    अरे मूर्ख, तू भूल गया, मुझे वो समय आज तक याद है, तथागत आँखें मूँदे पर शांत मूर्ति बने बैठे थे और हम प्रेम और श्रद्धा से उन्हें तक रहे थे, हमने देखा उनके होंट तनिक मुस्काए, आनंद ने पूछा, हे तथागत, मुस्काने का कारन क्या हुआ, बोले कि इस समय एक भिक्षु का नारी से मुक़ाबला है, मुक़ाबले में कौन जीतेगा? आनंद ने पूछा।

    मुक़ाबला कड़ा है। तथागत बोले,नारी चातुर है, गले लगती है और मचल के निकल जाती है, अंग दिखाती है और छुपा लेती है, छलकती छातियों की झलक दिखाती है फिर ओट कर लेती है, लहँगा उतारने लगती है, फिर चढ़ा लेती है।

    सुंदर समुंदर ध्यान से सुनता रहा, उसे उस बीती घड़ी की ऐसे याद आई जैसे समुंदर उमंड के आता है, बोला, गोपाल तूने कब की बात याद दिलाई, हाँ मुक़ाबला बहुत सख़्त था, क्या नारी थी मानो कंवल का फूल, मैं पहले उस बस्ती में जाता तो गली-गली फिरता और क्या निर्धन क्या धनवान, हर चौखट पे जाके भिक्षा लेता, पर उसकी सुंदरता ने मुझे ऐसा मोहित किया कि सब रस्ते भूला, बस उसी चौखट का हो रहा है। रोज़ भिक्षा पात्र लिए इस द्वार से जाता और आवाज़ लगाता कि सुंदरी भिक्षु को भिक्षा मिले, उस छबीली ने मुझ पे बहुत दया की और बहुत भिक्षा दी, मैंने बहुत स्वाद लूटा और एक दिन तो इतनी दयालु बनी कि मैंने जाना कि गंगा नहा लूँगा। अंदर ले जा के साइकिल लगा ली और गोद में फूल के समान पड़ी, गोपाल मत पूछ कि कैसी कोमल सरल गात थी, क्या रसीला सीना था और कैसे भरे-भरे कूल्हे थे और पेट बिल्कुल मलाई। अंग से अंग मिलने लगा था कि तथागत की मूर्ति प्रकाशित हुई। सुंदर समुंदर ठंडा साँस लेकर चुप हो गया।

    फिर क्या हुआ? गोपाल ने पूछा। सुंदर समुंदर ने मरी सी आवाज़ में कहा, फिर क्या होना था, मैंने बासना को मारा और मीठी नींद से बे-पिए निकल आया। सुंदर समुंदर ने चुप होके आँखें बंद कर लीं जैसे दूर के ध्यान में खो गया हो। फिर आँखें खोलीं, धीरे से बोला, अब वो कहाँ होगी?

    कौन? गोपाल ने अचंभे से उसे देखा।

    वही सुंदरी।

    कौन जाने कहाँ हो।

    सुंदर समुंदर उठ खड़ा हुआ, गोपाल ने एक अचंभे के साथ देखा कि उसके क़दम बस्ती की तरफ़ उठ रहे हैं, गोपाल पुकारा, बंधु पलट आ। सुंदर समुंदर खोया-खोया चलता चला गया, गोपाल ने ज़ोर से आवाज़ दी, बंधु, पलट आ। विद्या सागर ख़ुश्क आवाज़ में बोला, सुंदर समुंदर अब पलट के नहीं आएगा कि वो अब बासना के चंगुल में है। गोपाल चिल्लाया, हे विद्या सागर, ऐसा जतन कर कि वो बासना के चंगुल से निकले और पलट आए। विद्या सागर ने उसी ख़ुश्क आवाज़ में कहा, हे गोपाल, तू उसे भूल जा, अपने आपको बचा सकता है तो बचा ले।

    प्रभु, मेरी चिंता कर, मैं बचा हुआ हूँ। विद्या सागर ने उसपर कुछ नहीं कहा, चुप रहा, फिर ज़हर भरी हँसी हँसा और बोला, जो याँ सबसे ज़्यादा बोल, बोल रहा था वो सबसे पहले गया, बासना बहा ले गई जैसे बाढ़ सोते गाँव को बहा ले जाती है।

    गोपाल विद्या सागर का मुँह तकने लगा फिर बोला, हे गुनी बोलने में क्या बुराई है।

    विद्या सागर कहने लगा, बंधु शायद तूने ज़्यादा बोलने वाले की जातक नहीं सुनी, अच्छा तो सुन, हमारे बुद्ध जी महाराज एक बार एक दरबारी के घर जन्मे थे, बड़े होके राजा के मंत्री बने मगर वो राजा बहुत बोलता था, बोद्धिसत्व जी ने मन में विचार किया कि किसी प्रकार राजा पर जताया जाए कि राजा की बड़ाई ज़ियादा बोलने में नहीं, ज़ियादा सुनने में है। अब सुनो कि हिमालय पहाड़ की तली में एक तलैया थी, वहाँ एक कछुआ भी रहता था, दो मुर्ग़ाबियाँ भी उड़ती वहाँ आईं, तीनों में गाढ़ी छनने लगी, पर एक समय ऐसा आया कि तलैया का पानी सूखने लगा, मुर्ग़ाबियों ने कछुए से कहा कि मित्र हिमालय पहाड़ में हमारा घर है, वहाँ बहुत पानी है, तू हमारे संग चल, वहाँ चैन से गुज़रेगी।

    कछुआ बोला कि, मित्रो मैं धरती पर रेंगने वाला जानवर, भला इतनी ऊँचाई पे कैसे पहुँचूँगा। मुर्ग़ाबियों ने कहा कि अगर तू यह वचन दे कि तू ज़बान नहीं खोलेगा तो हम तुझे वहाँ ले चलेंगे। कछुए ने चुप रहने का वचन दिया, मुर्ग़ाबियों ने एक डंडी लाके कछुए के सामने रखी और कहा कि बीच में से अपने दाँतों से पकड़ और देख बोलना मत, फिर एक मुर्ग़ाबी ने अपनी चोंच से डंडी का एक सिरा और दूसरी ने अपनी चोंच से दूसरा सिरा पकड़ा और उड़ लिए, उड़ते-उड़ते जब वो एक नगर से गुज़रे तो बालकों ने ये तमाशा देखा और शोर मचाया, कछुए को बहुत ग़ुस्सा आया, वो कहने लगा था कि अगर मेरे मित्रों ने मुझे सहारा दिया है तो तुम क्यों जल मरे, मगर उसने ये कहने के लिए जीभ खोली ही थी कि टप से ज़मीन पर गिर पड़ा।

    अब सुनो कि ये कछुआ जहाँ गिरा था वो जगह राजा के महल में थी, महल में शोर मचा कि एक कछुआ हवा में उड़ते-उड़ते ज़मीन पर गिर पड़ा है, राजा बोद्धिसत्व जी की संगत में उस जगह आया, कछुए की दुर्दशा देख बोद्धिसत्व जी से पूछा, हे बुद्धिमान तू कुछ बता कि कछुए की ये दुर्गत कैसे बनी? बोद्धिसत्व जी ने तुरंत कहा, ये बहुत बोलने का फल है। और कछुए और मुर्ग़ाबियों की पूरी कहानी सुनाई, फिर कहा कि हे राजा, जो बहुत बोलते हैं उनकी ये दुर्गत बनती है? राजा ने बोद्धिसत्व जी की बात पर जी ही जी में विचार किया, बात उसके जी को लगी। उस दिन के बाद से ये हुआ कि वो कम बोलता था और ज़ियादा सुनता था।

    ये जातक सुना कर विद्या सागर ने कहा कि बंधु हम भिक्षु लोग कछुए हैं और रस्ते में हैं, जो भिक्षु मौक़ा बे मौक़ा बोलेगा, वो गिर पड़ेगा और रह जाएगा। तूने देखा सुंदर समुंदर किस तरह गिरा और रह गया। गोपाल के जी में ये बात उतर गई, बोला कि कितने भिक्षु अभी रस्ते में थे कि गिर पड़े और रह गए। फिर कहा, अब मैं चुप रहूँगा।

    और गोपाल सचमुच चुप हो गया, ज्ञान-ध्यान करता, भिक्षा लेने बस्ती जाता और किसी से बात किए बिना वापस जाता, पर एक दिन उसी बस्ती के बीच उसके नगर बासी और बचपन के मित्र प्रभाकर ने उसे आन पकड़ा, कहा कि हे मित्र,मैं तेरे लिए राज का संदेश लाया हूँ, सुन कि तेरा पिता परलोक सिधारा, अब राज गद्दी ख़ाली पड़ी है, तेरी मैया तुझे बुलाती है और तेरी सुंदर स्त्री सोलह सिंघार किए तेरी बाट देखती है। गोपाल ने कहा कि हे मित्र, ये संसार दुख का अस्थान है, राज पाट मोह का जाल है, माता-पिता,स्त्री माया का खेल हैं, हम भिक्षु तथागत के बालक हैं। ये कह कर गोपाल मुड़ लिया, प्रभाकर पीछे से पुकारा, मित्र, मैंने तेरी बात सुनी, फिर भी मैं तुझसे कहता हूँ कि मैं तीन दिन इस बस्ती में रहूँगा और उसी स्थान पे बैठ के तेरी बाट देखूँगा।

    गोपाल वापस होने को तो हो लिया पर बहुत ब्याकुल था, प्रभाकर की आवाज़ रह-रह कर उसके कानों में गूँज रही थी, वो विद्या सागर के पास आके ऐसे बैठा जैसे पेड़ से पत्ता गिरता है, बोला कि हे ज्ञानी, मैं चुप हूँ फिर भी गिर रहा हूँ, डंडी मेरे दाँतों से निकली पड़ रही है, बता कि मैं क्या करूँ? विद्या सागर ने कहा, फूल को देख।

    गोपाल पास की एक फूलों की झाड़ी के सामने आसन मार कर बैठा और एक फूल को कि अभी-अभी खिला था, तकने लगा, तकता रहा, फूल मुस्काता रहा, पर फिर धीरे-धीरे रंग बे-रंग हुआ और फूल मुरझा गया, गोपाल को जैसे कल गई हो, अपने आपसे कहा कि हे गोपाल, संसारा सार है और आँखें बंद कर लें, पर जब भोर भए इसने आँखें खोलीं तो उसी टहनी पे एक और फूल खिला हुआ था और उसे देख-देख मुस्का रहा था, खिले फूल को देख वो ब्याकुल हो गया। उसकी दृष्टि बिखर गई, आँखें इधर-उधर भटकने लगीं और उसे याद आया कि आज तीसरा दिन है, वो तड़प कर उठ खड़ा हुआ और उसके पाँव आप ही आप बस्ती की तरफ़ उठने लगे। विद्या सागर उसे जाते देखा किया और चुप रहा, जब वो आँखों से ओझल हो गया तो वो ज़हर भरी हँसी हँसा, फिर उसे तथागत की कही हुई बात याद आई कि यात्रा में अगर सूझ बूझ वाला संघी-साथी मिले तो भलाई इसी में है कि यात्री अकेला चले, जंगल में हाथी के समान।

    तथागत की ये बात याद करके उसे बहुत ढ़ारस हुई, उसने इसपर विचार किया और उसे इसमें बहुत गंभीरता दिखलाई दी, मैंने तथागत से पहले सुना और अब जाना कि जो आदमी मूर्ख के साथ चलता है वो रस्ते में बहुत दुख उठाता है, मूर्ख की संगत से ये अच्छा है कि आदमी अकेला रहे और अकेला चले, उसने याद किया कि सुंदर समुंदर और गोपाल की संगत ने उसके ज्ञान में कितनी खंडित डाली है। वो बोलते ही रहते थे और उसका ध्यान बार-बार बट जाता था, उसे लगा कि कितने मनों का बोझ था जो उनके चले जाने से उसके सर से उतर गया है, उसने अब अपने आपको हल्का-हल्का जाना और निचिंत होकर जंगल में घूमने लगा और कभी ऊँची-ऊँची घास के बीच चला, कभी किसी बिटिया पर पड़ लिया, कभी किसी ऊँची डगर पे हो लिया।

    उसके डाल-डाल, पात-पात को देखा, फूलों को मुस्काते और टहनियों को लहराते देखा, नदी किनारे चलते हुए शीतल धारा का शोर सुना, उसे लग रहा था कि सारा संसार आनंद संगीत से भर गया है और फूलों की सुगंध जल स्थल में रच बस गई है और उसने जाना कि उसे वस्तु ज्ञान मिल रहा है, उसने सोचा कि आत्म ज्ञान अपनी जगह मगर आदमी को वस्तु ज्ञान भी मिलना चाइए।

    वस्तु ज्ञान में मगन और आनंद से भरपूर वो डगर-डगर चलता रहा, देखता रहा, सुनता रहा, छूता रहा, सूँघता रहा, उसी चलने-फिरने में उसे एक पेड़ दिखाई दिया, अरे ये तो इमली का पेड़ है। वो ठिटक गया, उसे अचंभा हुआ कि उसने कितने दिनों से इस जंगल में बास कर रखा है मगर उसे पता ही चला कि याँ इमली का पेड़ भी है, फिर उसे ये ध्यान करके अचंभा हुआ कि अपने नगर से निकलने के बाद उसने कितने पेड़ों की छाँव में बसेरा किया है मगर कभी इमली का पेड़ दिखाई दिया, मैंने कभी ध्यान नहीं दिया था या इन बनों में इमली का पेड़ होता ही नहीं और ये सोचते-सोचते उसका ध्यान पीछे की तरफ़ गया, इमली का घना ऊँचा पेड़, कमान की समान लंबी-लंबी कटारें, तैरती उतरती तोतों की डारें, जाड़ों की रुत में भोर भए तोतों की लंबी-लंबी डारें शोर करती आतीं और इस पेड़ पे उतरतीं, मैंने इसके बाद बहुत बन देखे पर कभी ऐसा हरा-भरा पेड़ नहीं देखा और कभी किसी पेड़ पे इतने तोते उतरते नहीं देखे। और फिर इस पेड़ के साथ उसे थोड़ा-थोड़ा करके बहुत कुछ याद आया, आस-पास फैले हुए ऊँचे-नीचे मिट्टी में अटे रस्ते, उन पर दौड़ती गर्द उड़ाती रहती थीं।

    पेड़ों पर दौड़ती गिलहरियाँ, गिरगिट, उसका क़मची लेकर गिलहरी के पीछे भागना, गिलहरी का उचक कर पेड़ पर चढ़़ना, टहनी पे जा कर दो नन्ही-नन्ही टाँगों पे खड़े होकर उसे देखना और फिर पत्तों में छुप जाना, किसी भट्ट में से दो सुइयों जैसी ज़बान के साथ एक लाल-लाल मुँह का अचानक दिखाई देना और ओझल हो जाना और उसके सारे बदन में डर की एक लहर का सरसराना और हाँ कौशम्भी, उसी पेड़ तले शाम के झुटपुटे में वो उससे मिली थी ऐसे जैसे नदी सागर से मिलती है, पहले होंट मिले, फिर वो डाली की तरह लचकती लंबी बाहें उसकी गर्दन के गिर्द और आन में वो दोनों शाम के झुटपुटे से रात के अंधेरे में चले गए। ये ध्यान करते-करते इसके अंदर एक मिठास घुलती चली गई मानो उसने सोम रस पिया हो वस्तु ज्ञानउसने मन ही मन में कहा और एक आनंद में डूब गया।

    उस अवस्था में वो तनिक देर रहा फिर ब्याकुल हो गया और उसने सोचा कि सब भिक्षु पेड़ों की छाँव से निकल कर छतों के नीचे चले गए और खाटों पर सोने लगे, और नारियों से आँख मिला कर बातें करने लगे और वो अकेला बन में भटकता फिर रहा है, सब पलट कर अपने-अपने स्थानों पर चले गए, मैं क्यों अपने पेड़ से दूर हूँ, पेड़ की याद उसके लिए बुलावा बन गई, उसके पाँव उस डगर पर पड़ लिए जो इस जंगल से निकल कर उसके नगर की तरफ़ जाती थी।

    जंगल से निकलते-निकलते वो एक दम ठिटका, एक पर्सेंध मूर्ति उसके ध्यान का रस्ता काट रही थी और वो उपदेश जिसे वो भूल ही गया था कि भिक्षुओ अपने विचारों की देख-भाल रखो और अगर तुम बुराई के रस्ते पर पड़ जाओ तो अपने आपको वहाँ से ऐसे निकालो जैसे हाथी दलदल से निकलता है, उसने आगे उठते हुए पाँव को रोका और ऐसे पलटा जैसे हाथी दलदल से निकलता है। वो एक पछतावे के साथ पलट कर आया और एक पीपल के पीड़ तले बीरासन मार कर बैठ गया, वो पछताया ये सोच कर कि वो खिलते फूलों और बहती नदी को देख कर ख़ुश हुआ था, क्या तथागत ने नहीं कहा था कि भिक्षुओ हँसना मुस्कुराना किस कारन और ख़ुशी किस बात की कि संसार तो धड़-धड़ जल रहा है, उसने अपने इर्द-गिर्द देखा, उसने जाना कि ये संसार अग्नि कुंड है। हर चीज़ जल रही है, फूल, पत्ते, पेड़, बहती नदी और उसकी अपनी दृष्टि, उसने आँखें बंद कर लीं।

    वो दिनों बीरासन मारे, आँखें मूँदे, गुम सुम बैठा रहा, पर उसे शांति नहीं मिली, उसका ध्यान बार-बार भटकता और इमली के पेड़ की तरफ़ चला जाता, निराश होकर वो उठा और शांति के खोज में एक लंबी यात्रा की। एक जंगल से दूसरे जंगल में, दूसरे जंगल से तीसरे जंगल में, चलते-चलते उसके तलवे ख़ूनम-ख़ून हो गए और पाँव सूज गए और टाँगें दुखने लगीं, आख़िर को वो अर्द ब्लू के जंगल में जा निकला, वो सहज-सहज करके बोधि वर्म के पास गया, उस ऊँचे घने बरगद को देखा जो एक देवता समान पेड़ों के बीच खड़ा था, वो उस पेड़ के नीचे बीरासन मार के बैठा। हाथ जोड़ कर बिनती की कि हे शाक्य मुनी, हे तथागत, हे अमीताभ, ये भिक्षु तेरा कछुआ है और रस्ते में है, आँखें मूँद लें और बड़बड़ाया, शांति, शांति, शांति।

    बैठा रहा, बैठा रहा, दिन बीतते चले गए और वो पत्थर बना बैठा रहा, फिर ऐसा हुआ कि धीरे-धीरे शोक उसके जी से धुल गया, मन में आनंद की एक कोंपल फूटी और ध्यान में एक हरा-भरा पेड़ा उभरा, वो पेड़ वही इमली का पेड़ था, वो उठ बैठा, जाना कि उसने भेद पा लिया है, यही कि हर नर-नारी का अपना जंगल और अपना पेड़ होता है, दूसरे जंगल में ढ़ूँढ़ने वाले को कुछ नहीं मिलेगा चाहे वहाँ बोधि वर्म ही क्यों हो, जो मिलेगा अपने जंगल में अपने पेड़ की छाँव में मिलेगा।

    ये भेद पाकर विद्या सागर ने जाना कि उसने ज्ञान की माया पाली और चला अपने पेड़ की ओर, पर अर्दबलो के जंगल से निकलते-निकलते एक भावना ने उसके पैर पकड़ लिए, दुबिदा में पड़ गया कि डंडी उसके दाँतों में है या दाँतों से छूट गई है, इस दुबिदा में उसका एक पाँव अर्दबलो के जंगल में था और दूसरा पाँव अपने पेड़ की तरफ़ उठा हुआ था और अग्नि कुंड में चारों ओर आग दहक रही थी।

    स्रोत:

    (Pg. 238)

      • प्रकाशक: एजुकेशनल बुक हाउस, अलीगढ़

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