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ग़ज़ल
दिल की तसल्ली जब कि होगी गुफ़्त ओ शुनूद से लोगों की
आग फुंकेगी ग़म की बदन में उस में जलिए भुनिएगा
मीर तक़ी मीर
नज़्म
किसान
ज़ेर-ए-लब अर्ज़ ओ समा में बाहमी गुफ़्त-ओ-शुनूद
मिशअल-ए-गर्दूं के बुझ जाने से इक हल्का सा दूद
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
सालिक है क्यूँ तख़य्युल-ए-तर्क-ए-वजूद में
नक़्श-ए-सुवर का रंग है तेरे शुहूद में
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
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लेख
पढ़ते किसू को सुनिएगा तो देर तलक सर धुनिएगा दिल की तसल्ली जब कि न होगी गुफ़्त-ओ-शुनूद से लोगों की...
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
कुल्लियात
दिल की तसल्ली जब कि होगी गुफ़्त ओ शुनूद से लोगों की
आग फुंकेगी ग़म की बदन में उस में जलिए भुनिएगा
मीर तक़ी मीर
नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
हज़ारों साल से जीते चले आए हैं मर मर के
शुहूद इक फ़न है और मेरी अदावत बे-फ़नों से है
जौन एलिया
नज़्म
हिण्डोला
लिए रुबूबियत-ए-काएनात का एहसास
हर एक जल्वे में ग़ैब ओ शुहूद का वो मिलाप