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ग़ज़ल
मोहब्बत अस्ल में 'मख़मूर' वो राज़-ए-हक़ीक़त है
समझ में आ गया है फिर भी समझाया नहीं जाता
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं
लाख समझाया कि इस महफ़िल में अब जाना नहीं
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
कभी कभी यूँ भी हम ने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है