aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "सर-ए-चश्म"
वही क़तरा जो कभी कुंज-ए-सर-ए-चश्म में थाअब जो फैला है तो सैलाब हुआ जाता है
तर्ज़-ए-मजहूल सर-ए-चश्म नुमूदार हुएफूल ही फूल सर-ए-चश्म नुमूदार हुए
हर ज़र्रा चश्म-ए-शौक़-ए-सर-ए-रहगुज़र है आजदिल महव-ए-इंतिज़ार है और किस क़दर है आज
हम लोग आपस में किसी को हिंदू, किसी को मुसलमान कहें मगर ग़ैर-मुल्क में हम सब नेटिव (Native) यानी हिन्दुस्तानी कहलाए जाते हैं। ग़ैर-मुल्क़ वाले ख़ुदा-बख़्श और गंगा राम दोनों को हिन्दुस्तानी कहते हैं। (तक़रीर-ए-सर सय्यद जो अंजुमन इस्लामिया, अमृतसर के ऐडरेस के जवाब में 26 जनवरी 1884 ई. को...
दूसरी मुलाक़ात पर गौतमा ने हम दोनों को अपने बूढ़े बाप से मिलाया और फिर एक रोज़ उसने हमें अपने घर चाय पर आने की दावत दे दी। उस रोज़ पाल के सूट का रंग हल्का फ़ाख़्तई था और चॉकलेट रंग की छोटे-छोटे बसंती फूलों वाली टाई उसे बड़ी सज...
सर-ए-चश्मسر چشم
in eye
उन्होंने साढे़ तीन रुपये के टिकट लिए थे। पिक्चर पसंद नहीं आई। लंबी कार का दरवाज़ा खोल दिया और कार दरिया की पुरसुकून लहरों की तरह सात रूपों के ऊपर से गुज़र गई। वो सात रुपये जिन के ऊपर से लहोरी दरवाज़े के एक कुंबे के पूरे सात दिन गुज़रते...
उन दिनों मैं लाहौर के एक अख़बार के दफ़्तर में मुलाज़िम था। घर चूँकि अमृतसर में था लिहाज़ा शाम की गाड़ी से वापस अपने घर चला जाता था। अगरचे लाहौर में बड़ी आपा का घर था और वो लोग मेरी इस हर सुबह सफ़र, हर शाम सफ़र ऐसी ज़िंदगी पर...
हम सर-ए-राह लुट गए यकसररहबरों की ये मेहरबानी है
सर-ए-चश्म-ए-अक़ीदतशिव की मूरत थी
जम्अ' करता हूँ सर-ए-चश्म बहुतफिर भी बरसात नहीं हो पाती
दिल-ए-ग़रीब को घर का हुआ न चैन नसीबइसे तो 'उम्र सर-ए-रहगुज़ार गुज़री है
सर-ए-चश्म रहते हैं अश्कों के जल्वेदिये जिस तरह हों भँवर के किनारे
सहाबी शाम सर-ए-चश्म फैलते जुगनूकिसी ख़याल ने बो दी ये कहकशाँ मुझ में
ये बड़ा चाँद चमकता हुआ चेहरा खोलेबैठा रहता है सर-ए-बाम-ए-शबिस्ताँ शब को
तू भी हरे दरीचे वाली आ जा बर-सर-ए-बाम है चाँदहर कोई जग में ख़ुद सा ढूँडे तुझ बिन बसे आराम है चाँद
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