aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "सवेरा"
सादिया सवेरा
शायर
इदारा सवेरा, लाहौर
संपादक
सवेरा आर्ट प्रेस, लाहौर
पर्काशक
सवेरा पब्लिकेशन्स, कराची
सवेरा ऑफ़सेट प्रेस, औरंगाबाद
महा सवेता देवी
लेखक
चाँद सितारे फूल परिंदे शाम सवेरा एक तरफ़सारी दुनिया उस का चर्बा उस का चेहरा एक तरफ़
इस वक़्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं हैमहताब न सूरज, न अँधेरा न सवेरा
सवेरा है बहुत ऐ शोर-ए-महशरअभी बेकार उठवाया गया हूँ
(3)एक घंटा गुज़र गया। सर्दी बढ़ने लगी। हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिला कर सर को छुपा लिया फिर भी सर्दी कम न हुई। ऐसा मालूम होता था कि सारा ख़ून मुंजमिद हो गया है। उसने उठकर आसमान की जानिब देखा अभी कितनी रात बाक़ी है। वो सात सितारे जो क़ुतुब के गिर्द घूमते हैं। अभी अपना निस्फ़ दौरा भी ख़त्म नहीं कर चुके। जब वो ऊपर आ जाएँगे तो कहीं सवेरा होगा। अभी एक घड़ी से ज़्यादा रात बाक़ी है।
पहली अप्रैल तक उस्ताद मंगू ने जदीद आईन के ख़िलाफ़ और उसके हक़ में बहुत कुछ सुना। मगर उसके मुतअल्लिक़ जो तसव्वुर वो अपने ज़ेहन में क़ायम कर चुका था, बदल न सका। वो समझता था कि पहली अप्रैल को नए क़ानून के आते ही सब मुआमला साफ़ हो जाएगा और उसको यक़ीन था कि उसकी आमद पर जो चीज़ें नज़र आयेंगी उनसे उसकी आँखों को ठंडक पहुंचेगी।आख़िरकार मार्च के इकत्तीस दिन ख़त्म हो गए और अप्रैल के शुरू होने में रात के चंद ख़ामोश घंटे बाक़ी रह गए। मौसम खिलाफ़-ए-मामूल सर्द था और हवा में ताज़गी थी। पहली अप्रैल को सुब्ह सवेरे उस्ताद मंगू उठा और अस्तबल में जाकर घोड़े को जोते और बाहर निकल गया। उसकी तबीयत आज ग़ैर-मामूली तौर पर मसरूर थी... वो नए क़ानून को देखने वाला था।
सवेराسویرا
early morning, dawn, day, break
Shumara Number-001
अहमद नदीम क़ासमी
सवेरा, लाहौर
शुमारा नम्बर-050,051,052
अहमद मुश्ताक़
Shumara Number-002
नज़ीर चौधरी
Shumara Number-055
सलाहुद्दीन महमूद
Shumara Number-004
साहिर लुधियानवी
Shumara Number-024
सैय्यदा शाहीन
Shumara Number-023
मोहम्मद हनीफ़ रामे
Shumara Number-015-016
Shumara Number-003
Shumara Number-029
नज़ीर अहमद चाैधरी
Shumara Number-022
Shumara Number-017,018
Shumara Number-028
Shumara Number-044
मोहम्मद सलीमुर्रहमान
Shumara Number-47
Jan, Feb, Mar 1974सवेरा, लाहौर
क्यूँ मेरा मुक़द्दर है उजालों की सियाहीक्यूँ रात के ढलने पे सवेरा नहीं होता
जिस तरह सवेरा होता हैओ देस से आने वाले बता
मेरे घर में बसी थी तारीकीघर से बाहर मगर सवेरा था
वो जब स्कूल की तरफ़ रवाना हुआ तो उसने रास्ते में एक क़साई देखा, जिसके सर पर एक बहुत बड़ा टोकरा था। उस टोकरे में दो ताज़ा ज़बह किए हुए बकरे थे खालें उतरी हुई थीं, और उनके नंगे गोश्त में से धुआँ उठ रहा था। जगह जगह पर ये गोश्त जिसको देख कर मसऊद के ठंडे गालों पर गर्मी की लहरें सी दौड़ जाती थीं, फड़क रहा था जैसे कभी कभी उसकी आँख फड़का करती थी।उस वक़्त सवा नौ बजे होंगे मगर झुके हुए ख़ाकसतरी बादलों के बाइस ऐसा मालूम होता था कि बहुत सवेरा है। सर्दी में शिद्दत नहीं थी, लेकिन राह चलते आदमियों के मुँह से गर्म-गर्म समावार की टोंटियों की तरह गाढ़ा सफ़ेद धुआँ निकल रहा था। हर शय बोझल दिखाई देती थी जैसे बादलों के वज़न के नीचे दबी हुई है। मौसम कुछ ऐसी ही कैफ़ियत का हामिल था। जो रबड़ के जूते पहन कर चलने से पैदा होती हो। इसके बावजूद कि बाज़ार में लोगों की आमद-ओ-रफ़्त जारी थी और दुकानों में ज़िंदगी के आसार पैदा हो चुके थे आवाज़ें मद्धम थीं। जैसे सरगोशियां हो रही हैं, चुपके-चुपके, धीरे-धीरे बातें हो रही हैं, हौले-हौले लोग क़दम उठा रहे हैं कि ज़्यादा ऊंची आवाज़ पैदा न हो।
ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम सिरी कंठ सिंह था। उसने एक मुद्दत-ए-दराज़ की जानकाही के बाद बी.ए. की डिग्री हासिल की थी। और अब एक दफ़्तर में नौकर था। छोटा लड़का लाल बिहारी सिंह दोहरे बदन का सजीला जवान था। भरा हुआ चेहरा चौड़ा सीना भैंस का दो सेर ताज़ा दूध का नाश्ता कर जाता था। सिरी कंठ उससे बिल्कुल मुतज़ाद थे। इन ज़ाहिरी ख़ूबियों को उन्होंने दो अंग्रे...
ज़र्द गुलाब और आईनों को चाहने वालीऐसी धूप और ऐसा सवेरा फिर नहीं होगा
इस तरह दो तीन दिन गुज़र गए। नसीर को अन्ना की रट लगाने और रोने के सिवा और कोई काम न था। वो बे-ज़रर कुत्ता जो एक लम्हे के लिए उसकी गोद से जुदा न होता था। वो बेज़बान बिल्ली जिसे ताक़ पर बैठे देखकर वो ख़ुशी से फूले न समाता था। वो ताइर-ए-बे-परवाज़ जिस पर वो जान देता था। सब उस की नज़रों से गिर गए। वो उनकी तरफ़ आँख उठा कर भी न देखता। अन्ना जैसी जीती जागती प्य...
लगाऊंगा मैं अदब में नारे कि आ रहा है नया सवेरा
रोज़ ये सोच के सोता हूँ कि इस रात के बादअब अगर आँख खुलेगी तो सवेरा होगा
होने लगा तुलूअ ही ख़ुरशीद रू सियाहफ़न्नी नुक़्ता-ए-नज़र से ये शे’र सौदा से कमतर है, क्योंकि दूसरे मिसरे में बज़ाहिर लफ़्ज़ “ही” ज़ाइद है, लिहाज़ा इसमें वही ऐब है, अगरचे इस दर्जे का नहीं, जैसा हसरत के यहां है। जिस तजुर्बे का इज़हार किया गया है वो भी बज़ाहिर हसरत से क़रीबतर है, क्योंकि यहां भी ख़ुदग़रज़ी का रोना है कि रात बहुत छोटी है। लेकिन फिर भी ये सौदा से आगे की शे’री मंज़िल है, क्यों कि इसका इबहाम तै नहीं हो सकता। शाम होते ही सूरज निकलने लगता है यानी सुबह होने लगती है। मीर ने रात की तवालत को मौज़ूई तजुर्बे की मदद से एक लम्हे में सिमटा दिया है। यानी रात इतनी छोटी मालूम होती है कि मालूम होता है आई ही नहीं, शाम हुई नहीं कि सवेरा भी आ गया।
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