aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "सियाह-रात"
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने कायही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का
इतनी सियाह-रात में इतनी सी रौशनीये चाँद वो नहीं मिरा महताब और है
सियाह रात से हम रौशनी बनाते हैंपुरानी बात को अक्सर नई बनाते हैं
सियाह रात को रंगीन करने वालों मेंहमारे ख़्वाब भी शामिल हैं मरने वालों में
सुब्ह का वक़्त अपनी शफ़्फ़ाक़ियत, ताज़गी, ख़ुश-गवार फ़ज़ा, परिंदों की चहचहाहट और कई वजहों से सब को पसंद होता है अपनी इन सिफ़ात के हवाले से इस का इस्तिक़बाल शायरी में हुआ है। इस के अलावा सुब्ह की आमद कई अलामती जहतें भी रखती है एक सतह पर ये सियाह रात के ख़िलाफ़ जंग के बाद की सुब्ह है और एक नई जद्द-ओ-जहद के आग़ाज़ का इब्तिदाइया भी। हमारे इस इन्तिख़ाब में आप सुब्ह को और कई रंगों में देखेंगे।
शमा रात भर रौशनी लुटाने के लिए जलती रहती है, सब उस के फ़ैज़ उठाते हैं लेकिन उस के अपने दुख और कर्ब को कोई नहीं समझता। किस तरह से सियाह काली रात उस के ऊपर गुज़रती है उसे कोई नहीं जानता। तख़्लीक़ कारों ने रौशनी के पीछे की उन तमाम अन-कही बातों को ज़बान दी है। ख़याल रहे कि शायरी में शमा और पर्वाना अपने लफ़्ज़ी मानी और माद्दी शक्लों से बहुत आगे निकल जिंदगी की मुतनव्वे सूरतों की अलामत के तौर मुस्तामल हैं।
सियाह-रातسیاہ رات
black night
सियाह-रात के सीने पे जगमगाता हुआगुज़र गया है कोई रौशनी लुटाता हुआ
सियाह रात के पहलू में जिस्म के अंदरकिसी गुनाह की ख़्वाहिश को पालते रहना
सियाह-रात पशेमाँ है हम-रकाबी सेवो रौशनी है तिरे ग़म की माहताबी से
मैं रात थी सियाह रातएक नुक़्ते में सिमटी हुई
सियाह रात की सब आज़माइशें मंज़ूरकिसी सहर के उजाले का आसरा तो मिला
सियाह रात के बदन पे दाग़ बन के रह गएहम आफ़्ताब थे मगर चराग़ बन के रह गए
जब बन सियाह रात के तारों से भर गएकुंज-ए-चमन में चमके शगूफ़े नए नए
सियाह रात के दरिया को पार करते चलोबस एक दूसरे को होशियार करते चलो
सियाह रात की हर दिलकशी को भूल गएदिए जला के हमीं रौशनी को भूल गए
मैं तल्ख़ी-ए-हयात से घबरा के पी गयाग़म की सियाह रात से घबरा के पी गया
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