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ग़ज़ल
हाथ से उन के टपकते नहीं मय के क़तरे
अश्क-ए-ख़ूँ रोता है ये रंग-ए-हिना मेरे ब'अद
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
तंज़-ओ-मज़ाह
होते जो कई दीदा-ए-खू ना ब फ़िशां और मरता हूँ हर इक वार पे हरचंद सर उड़ जाये...
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
सीने में दिल-ए-ग़म-ज़दा ख़ूँ हो गया शायद
बे-वज्ह भी होते हैं कहीं अश्क-ए-रवाँ सुर्ख़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
निज़ाम-ए-वक़्त का अब ख़ूँ निचोड़ना होगा
कि संग-ए-सख़्त अदाओं की अंजुमन में है
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
ग़ज़ल
है आज और ही कुछ ज़ुल्फ़-ए-ताबदार में ख़म
भटकने वाले को मंज़िल का रास्ता तो मिला
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
न रहा धुआँ न है कोई बू लो अब आ गए वो सुराग़-जू
है हर इक निगाह गुरेज़-ख़ू पस-ए-इश्तिआ'ल के दरमियाँ
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
ज़र्रा-ज़र्रा लाल कर देंगे हमारे ख़ून से
और हमीं से ये सितमगर ख़ूँ-बहा ले जाएँगे