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नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
है ''ज़'' बाज़ार में तो दरमियाँ 'ज़रयून' में अव्वल
तो ये इब्राफ़नीक़ी खेलते हर्फ़ों से थे हर पल
जौन एलिया
तंज़-ओ-मज़ाह
फ़िराक़ गोरखपुरी
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ग़ज़ल
बिखराते हो सोना हर्फ़ों का तुम चाँदी जैसे काग़ज़ पर
फिर इन में अपने ज़ख़्मों का मत ज़हर मिलाओ इंशा-जी
क़तील शिफ़ाई
तंज़-ओ-मज़ाह
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
मिरे हर्फ़ों के ये मोती मिरे हाथों बिखर जाते
ग़ुबार-ए-बे-यक़ीनी में अगर रस्ता बदल लेते