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शेर
वो हवा-ख़्वाह-ए-नसीम-ए-ज़ुल्फ़ हूँ मैं तीरा-बख़्त
क्यूँ न मरक़द पर करे दूद-ए-चराग़-ए-शाम रक़्स
मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता
ग़ज़ल
कब गुल है हवा-ख़्वाह सबा अपने चमन का
वा जुम्बिश-ए-दम से है रफ़ू ज़ख़्म-ए-कुहन का
ममनून निज़ामुद्दीन
शेर
वो हवा-ख़्वाह-ए-चमन हूँ कि चमन में हर सुब्ह
पहले मैं आता हूँ और बाद-ए-सबा मेरे बा'द
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
ग़ज़ल
वो हवा-ख़्वाह-ए-नसीम-ए-ज़ुल्फ़ हूँ मैं तीरा-बख़्त
क्यूँ न मरक़द पर करे दूद-ए-चराग़-ए-शाम रक़्स
मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता
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