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नज़्म
एक आरज़ू
लज़्ज़त सरोद की हो चिड़ियों के चहचहों में
चश्मे की शोरिशों में बाजा सा बज रहा हो
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
क्यूँ न वहशत-ए-ग़ालिब बाज-ख़्वाह-ए-तस्कीं हो
कुश्ता-ए-तग़ाफ़ुल को ख़स्म-ए-ख़ूँ-बहा पाया
मिर्ज़ा ग़ालिब
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नज़्म
इंतिज़ार
आ गई थी दिल-ए-मुज़्तर में शकेबाई सी
बज रही थी मिरे ग़म-ख़ाने में शहनाई सी
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
देखो आहिस्ता चलो
ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं
काँच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में
गुलज़ार
ग़ज़ल
हटता नहीं तसव्वुर-ए-अस्बाब-ओ-मुल्क-ओ-माल
कानों में बज रही है वो शहना-ए-लखनऊ