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नज़्म
शिकवा
रहमतें हैं तिरी अग़्यार के काशानों पर
बर्क़ गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
नवा-ए-सुब्ह-गाही ने जिगर ख़ूँ कर दिया मेरा
ख़ुदाया जिस ख़ता की ये सज़ा है वो ख़ता क्या है
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में
लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
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नज़्म
पास रहो
मरहम-ए-मुश्क लिए, नश्तर-ए-अल्मास लिए
बैन करती हुई हँसती हुई, गाती निकले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
परछाइयाँ
उन्हें तो झूमती गाती हयात मिल जाए
बहुत दिनों से है ये मश्ग़ला सियासत का