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नज़्म
ज़ूद-पशीमान
दरवाज़ों से लिपटी बेलें परे हटाता
जंगल की बाँहों में जकड़े महल के हाथ छुड़ाता
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
जा के सुनूँ आसार-ए-चमन में साएँ साएँ शाख़ों की
ख़ाली महल के बुर्जों से दीदार-ए-बर्क़-ओ-बाद करूँ
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
अजनबी
मेरी ख़ातिर ये महल और ये मेहराब न छोड़
ख़्वाब-गाहों के मसर्रत से भरे ख़्वाब न छोड़
साबिर दत्त
नज़्म
बम्बई
अपनी बाँहों को बहर-ए-अरब में समेटे हुए
वो चटानों पे रक्खे हुए ऊँचे ऊँचे महल
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
शिकस्त-ए-अना
आस का रूप-महल दस्त-ए-तही है जैसे
बहर-ए-इम्कान पे काई सी जमी है जैसे
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
बैठ के साहिल पर हम दोनों सपने बोया करते थे
रेत के सीने पर इक बच्चा महल उगाया करता था