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ग़ज़ल
अल्लाह रे ज़ोफ़-ए-सीना से हर आह-ए-बे-असर
लब तक जो पहुँची भी तो चढ़ी दो घड़ी के बाद
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
नज़्म
'इक़बाल' के मज़ार पर
हमें ज़ोफ़-ए-बसारत से कहाँ थी ताब-ए-नज़्ज़ारा
सिखाए उस के पर्दे ने हमें आदाब-ए-नज़ारा
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
है तन में रीशा-हा-ए-नए ख़ुश्क उस्तुख़्वाँ
क्यूँ खींचता है काँटों में ऐ ज़ोफ़-ए-तन मुझे