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ग़ज़ल
ख़ाक अपनी ख़ाक-ए-कूचा-ए-जानाँ में जा मिली
एहसानमंद-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ नहीं हैं हम
अब्र अहसनी गनौरी
शेर
उल्फ़त-ए-कूचा-ए-जानाँ ने किया ख़ाना-ख़राब
बरहमन दैर से का'बे से मुसलमाँ निकला
वज़ीर अली सबा लखनवी
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ग़ज़ल
हम ए’तकाफ़-ए-कूचा-ए-जानाँ न कर सके
दाग़-ए-जिगर को शो'ला-ए-रक़्साँ न कर सके
अब्दुल क़य्यूम ज़की औरंगाबादी
ग़ज़ल
कूचा-ए-जानाँ में जा निकले जो ग़िल्माँ भूल कर
याद हो उस को न फिर गुलज़ार-ए-रिज़वाँ भूल कर
फ़ानी बदायुनी
शेर
कूचा-ए-जानाँ में यारो कौन सुनता है मिरी
मुझ से वाँ फिरते हैं लाखों दाद और बे-दाद में