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ग़ज़ल
जुनून-ए-शौक़ मिरी हसरतों से कम क्यों हो
वफ़ा की राह में ये लग़्ज़िश-ए-क़दम क्यों हो
मजीद खाम गानवी
ग़ज़ल
न जाएगा किसी के गेसुओं का ख़म-ब-ख़म होना
बहुत मुश्किल है मेरे शौक़ की उलझन का कम होना
अनवारुल हक़ अहमर लखनवी
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ग़ज़ल
तिरी ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म ने नए सिलसिले निकाले
मिरी सीना-चाकियों से जो बना मिज़ाज-ए-शाना
जमील मज़हरी
ग़ज़ल
क्या मिला मिटा कर हम तीरगी के मारों को
अब सँवारिए अपनी ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म तन्हा
मुबारक मुंगेरी
ग़ज़ल
ज़ंजीर-ए-ग़म है ख़ुद मिरी ख़्वाहिश का सिलसिला
या ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म कि सलासिल कहें जिसे
तिलोकचंद महरूम
ग़ज़ल
कहीं खुली तो नहीं ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म उस की
इक इज़्तिराब का 'आलम मिरे ग़ुबार में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
'शमीम' वो न साथ दें तो मुझ से तय न हो सकें
ये ज़िंदगी के रास्ते कि ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म कहें
शमीम करहानी
ग़ज़ल
कभी तेरी कभी दस्त-ए-जुनूँ की बात चलती है
ये अफ़्साने तो ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म होते ही रहते हैं
अज़ीज़ हामिद मदनी
नज़्म
शाम-ए-अयादत
वो ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म शमीम-ए-मस्त से धुआँ धुआँ
वो रुख़ चमन चमन बहार-ए-जावेदाँ लिए हुए