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ग़ज़ल
है क्यूँ नक़्ल-ए-मकानी ये हवा-ए-ताज़ा-तर क्या है
समझ में कुछ नहीं आता इधर क्या है उधर क्या है
सय्यद अमीन अशरफ़
ग़ज़ल
ज़हे वो दिल जो तमन्ना-ए-ताज़ा-तर में रहे
ख़ोशा वो उम्र जो ख़्वाबों ही में बहल जाए
उबैदुल्लाह अलीम
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नज़्म
नज़्र-ए-दिल
आओ मिल कर इंक़लाब-ए-ताज़ा-तर पैदा करें
दहर पर इस तरह छा जाएँ कि सब देखा करें
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
उफ़ुक़ से आफ़्ताब-ए-ताज़ा-तर उभरा तो है लेकिन
उफ़ुक़ के उस तरफ़ तारीकियाँ महसूस करती हूँ
तसनीम काज़मी
नज़्म
हिसार-अंदर-हिसार
इक वजूद-ए-ताज़ा-तर में ढल सकूँ
फिर न जाने कौन सा ग़ुबार मुझ को घेर ले
अकबर हैदराबादी
ग़ज़ल
मयस्सर हो न जब तक बू-ए-ताज़ा-तर की हमराही
हवा की तरह गलियों से गुज़र अच्छा नहीं लगता
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
अगर तिरी आस्तीन-ए-तर को ख़बर नहीं दास्तान-ए-ग़म की
ज़माना उनवान-ए-ताज़ा-तर से सुना गया ना-तमाम कहना
अज़ीज़ हामिद मदनी
ग़ज़ल
जो कह चुका है तो अंदाज़-ए-ताज़ा-तर से कह
ख़बर की बात है इक गोश-ए-बे-ख़बर से कह