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ग़ज़ल
क़ुबूल-ए-तौबा-ओ-अफ़्व-ए-गुनह सब कुछ सही लेकिन
कभी ना-कर्दनी की ख़ुद पशेमानी नहीं जाती
शाकिर नायती
ग़ज़ल
मुझ को आलूदा रखा इस मिरी गुमराही ने
अरक़-ए-शर्म-ए-गुनह भी तो बहाने न दिया
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
नज़्म
है मिरी सोच में रक़्साँ सभी जज़्बात का रंग
नज़्र-ए-एहसास-ए-गुनह हो गया दिन रात का रंग
है रवाँ ख़ून सा बे-रब्त ख़यालात का रंग
ऐन सीन
नज़्म
तवाइफ़
तेरा ज़ाहिर ख़ुशनुमा है तेरा बातिन है सियाह
हर अदा तेरी मुकम्मल दावत-ए-जुर्म-ओ-गुनाह