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तवाइफ़

MORE BYमाहिर-उल क़ादरी

    ज़न-ए-नापाक फ़ित्रत-ए-पैकर-ए-मकर-ओ-रिया

    दुश्मन-ए-मेहर-ओ-वफ़ा ग़ारत-गर-ए-शर्म-ओ-हया

    तेरी हो शोख़ी लचर है तेरा हर अंदाज़ पोच

    सख़्त-तर है संग-ओ-आहन से तिरी बाहोँ का लोच

    तेरा ज़ाहिर ख़ुशनुमा है तेरा बातिन है सियाह

    हर अदा तेरी मुकम्मल दावत-ए-जुर्म-ओ-गुनाह

    तेरी चुटकी की सदा है या कि शैताँ का ख़रोश

    रहम कर इंसानियत पर बुत-ए-इस्मत-फ़रोश

    अल-अमाँ तेरे मसनूई तबस्सुम का फ़रेब

    थरथरा उठती है जिस के ज़ोर से नब्ज़-ए-शकेब

    ये नज़ाकत की नुमाइश ये फ़रेब-आमेज़ चाल

    दोश-ए-हस्ती पर तेरा नापाक हस्ती है वबाल

    तेरे हर ग़म्ज़े की तह में है बनावट का शिकवा

    जिस के आगे सर-ब-सज्दा मासियत के दश्त-ओ-कोह

    तेरा चेहरा अर्ग़वानी तेरा दिल-ए-बे-आब-ओ-रंग

    ज़िंदगी क्या है तिरी क़ानून से फ़ितरत के जंग

    तेरी पेशानी का हर ख़त मासियत-आलूदा है

    तेरा हर इक़दाम ना-फ़र्जाम है बे-हूदा है

    तेरे होंटों पर हँसी है दिल तिरा अफ़्सुर्दा है

    तू ब-ज़ाहिर जी रही है रूह तेरी मुर्दा है

    तू हुसूल-ए-ज़र की ख़ातिर किस क़दर बेचैन है

    कसब-ए-दौलत ज़िंदगी का तेरी नसबुलऐन है

    तेरे मज़हब में हिफ़ाज़त आबरू की है गुनाह

    माँगती है तेरी बातों से निसाइयत पनाह

    तेरा दिल है ज़ंग-आलूदा मगर चेहरा है साफ़

    तेरे ज़ाहिर और बातिन में है कितना इख़्तिलाफ़

    जानती है अपनी रुस्वाई को तो वज्ह-ए-नुमूद

    सिंफ़-ए-नाज़ुक की खुली तौहीन है तेरा वजूद

    तेरी बेदारी नहीं है इक मुसलसल ख़्वाब है

    क्या तू वाक़िफ़ है कि इस्मत गौहर-ए-नायाब है

    जानता हूँ तेरी बाहोँ की लचक को बद-शिआ'र

    क्यूँ दिखाती है जड़ाव कंगनों को बार-ए-अब्र

    मेरी नज़रों को ख़ुदा-रा दावत-ए-काविश दे

    जगमगाते मोतियों के हार को जुम्बिश दे

    रेशमीं रूमाल से होंटों की सुर्ख़ी को छू

    मुझ पे छल सकता नहीं तेरा फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू

    ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं को हिनाई उँगलियों से मत सँभाल

    खुल चुका है मेरी नज़रों पर तेरा राज़-ए-जमाल

    रेशमीं साड़ी को सर से ख़ुद ही ढलकाती भी है

    बिल-इरादा बे-हयाई कर के शरमाती भी है

    सिसकियाँ भरती है तो अंगड़ाइयाँ लेती है तो

    उफ़ मक्कारा भरी महफ़िल को जल देती है तू

    कोई हो जाता है जब तेरे तसन्नो का शिकार

    चुपके चुपके काम करता है फ़रेब-आमेज़ प्यार

    तू दिला देती है उस को अपनी उल्फ़त का यक़ीं

    सच तो ये है तेरे काटे का कोई मंतर नहीं

    ज़िंदगी को इस की यकसर तल्ख़ कर देती है तू

    काँप जाता है जिगर वो चुटकियाँ लेती है तू

    भागता है जैसे कोई साँप की फुन्कार से

    दूर रहना चाहिए यूँ ही तिरे किरदार से

    स्रोत:

    Ruh-e-Sukhan (hisa dom) (Pg. 145 (e)147)

    • लेखक: स्वामी दयाल बिस्वानी
      • संस्करण: 1989
      • प्रकाशक: मतबा नामी प्रेस, लखनऊ
      • प्रकाशन वर्ष: 1971

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