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नज़्म
अहल-ए-हिन्द
क्या थे अहल-ए-हिन्द ये चर्ख़-ए-कुहन से पूछ लो
या हिमाला की गुफाओं के दहन से पूछ लो
बर्क़ देहलवी
नज़्म
फ़र्ज़ करो
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
इब्न-ए-इंशा
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नज़्म
मादर-ए-हिन्दोस्ताँ
मगर इक मख़मसे में मादर-ए-हिन्दोस्ताँ है आज
उसे दरकार अहल-ए-हिन्द का अज़्म-ए-जवाँ है आज
सुदर्शन कुमार वुग्गल
नज़्म
फ़र्ज़ और क़र्ज़
ज़रूरत है अब इस ईजाद की दाना-ए-मग़रिब को
जो अहल-ए-हिन्द के दामन को चोली से जुदा कर दे
ज़फ़र अली ख़ाँ
नज़्म
तुलसीदास
इक ज़माना था कि ग़ारत हो रहे थे अहल-ए-हिन्द
अपना मज़हब अपने हाथों खो रहे थे अहल-ए-हिन्द
जगत मोहन लाल रवाँ
ग़ज़ल
अहल-ए-वफ़ा से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ कर लो पर इक बात कहें
कल तुम इन को याद करोगे कल तुम इन्हें पुकारोगे
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
अहल-ए-वफ़ा से बात न करना होगा तिरा उसूल मियाँ
हम क्यूँ छोड़ें उन गलियों के फेरों का मामूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
शेर
अहल-ए-वफ़ा से तर्क-ए-तअल्लुक़ कर लो पर इक बात कहें
कल तुम इन को याद करोगे कल तुम इन्हें पुकारोगे
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
दिल-आशोब
दिल हाथ से इस के वहशी हिरन की मिसाल गया
हम अहल-ए-वफ़ा रंजूर सही, मजबूर नहीं