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ग़ज़ल
शौक़ बहराइची
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ग़ज़ल
उस बज़्म-ए-सुख़न में हम क्या पहुँचे कि शोर उट्ठा
लो 'अज़्म' कोई ज़ख़्मी तहरीर उठा लाया
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
उठो 'अज़्म' इस आतिश-ए-शौक़ को सर्द होने से रोको
अगर रुक न पाए तो कोशिश ये करना धुआँ खो न जाए
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
'अज़्म' इस अर्सा-ए-ना-मुरादी से घबरा के ये मत कहो
ऐसी बे-रंग सी ज़िंदगी किस लिए किस जज़ा के लिए
अज़्म बहज़ाद
शेर
उठो 'अज़्म' इस आतिश-ए-शौक़ को सर्द होने से रोको
अगर रुक न पाए तो कोशिश ये करना धुआँ खो न जाए
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
सुना रहे हो यूँ वहशत में हाल-ए-ग़म जो 'अज़्म'
हुआ वो नाला-ए-दिल दर्द का बयाँ न हुआ