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ग़ज़ल
बे-मेहरी तेरी क्या कहूँ ऐ संग-दिल कि चूर
मुझ दिल का शीशा तू ने ब-संग-ए-जफ़ा किया
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
ग़ज़ल
संग-ए-जफ़ा का ग़म नहीं दस्त-ए-तलब का डर नहीं
अपना है उस पर आशियाँ नख़्ल जो बारवर नहीं
नज़्म तबातबाई
ग़ज़ल
दीवाने को तेरे नहीं कुछ हू की ज़रूरत
मुहताज ब-संग-ए-कफ़-ए-तिफ़्लाँ नहीं होता
अनीसा हारून शिरवानिया
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ग़ज़ल
वो का'बा-ए-दिल तोड़ते हैं संग-ए-जफ़ा से
बरबाद हुआ जाता है अल्लाह का घर आज
राज्य बहादुर सकसेना औज
ग़ज़ल
मुँह न मोड़ेगा ये आसी गर यूँही मंज़ूर है
लीजिए संग-ए-जफ़ा और शीशा-ए-दिल तोड़िए
फ़ख़रुद्दीन ख़ाँ माहिर
ग़ज़ल
हर हर्फ़ में सख़्ती है तिरे संग-ए-जफ़ा से
डरता हूँ न फिर शीशा-ए-दिल चूर हो ऐ शैख़
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
हुए संग-ए-जफ़ा से शीशा-ए-दिल के कई टुकड़े
बस अब इस से ज़ियादा और चकनाचूर मत कीजो
बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान
ग़ज़ल
सरज़निश आलम की और संग-ए-जफ़ा तेरे से आह
शायद अब मीना-ए-दिल होता है ज़ालिम पाश पाश
लुत्फ़ुन्निसा इम्तियाज़
ग़ज़ल
संग-ए-जफ़ा को ख़ुश-ख़बरी दो मुज़्दा दो ज़ंजीरों को
शहर-ए-ख़िरद में आ पहुँचे हैं हम जैसे दीवाने भी
उम्मीद फ़ाज़ली
ग़ज़ल
है ये दिल नासेह बुताँ का जल्वा-गाह इस से न बोल
तोड़ मत संग-ए-जफ़ा से इस परी-ख़ाने के तईं
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
क्या ख़ाक आब-दारी-ए-तेग़ उस से हो कि है
वो चश्म-ए-सुर्मा-सा जो ब-संग-ए-फ़साँ फ़ुसूँ