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ग़ज़ल
इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ का मुझ से हो क्या गिला
क्या तुम छुपा सके हो उसे इस हया के साथ
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
ग़ज़ल
इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ जो अश्कों ने कर दिया
डूबा हुआ है दिल अरक़-ए-इंफ़िआ'ल में