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नज़्म
सुब्ह-ए-आज़ादी (अगस्त-47)
पुकारती रहीं बाहें बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
परछाइयाँ
तुम्हारा जिस्म हर इक लहर के झकोले से
मिरी खुली हुई बाहोँ में झूल जाता है
साहिर लुधियानवी
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नज़्म
ज़िंदाँ की एक सुब्ह
अहल-ए-ज़िंदाँ के ग़ज़बनाक ख़रोशाँ नाले
जिन की बाहोँ में फिरा करते हैं बाहें डाले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
अन-कही
झुक के जब सर किसी पत्थर पे टिका देता हूँ
तेरी बाहें मिरी गर्दन में उतर आती हैं
हिमायत अली शाएर
नज़्म
बरसात की बहारें
कितने तो भंग पी पी कपड़े भिगो रहे हैं
बाहें गुलों में डाले झूलों में सो रहे हैं
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
काली दीवार
रौशनियों के रंग बहें यूँ रस्ता नज़र न आए
मन की आँखों वाला भी याँ अंधा हो हो जाए
अहमद फ़राज़
नज़्म
हसीं आग
कितनी महरूम निगाहें हैं तुझे क्या मालूम
कितनी तरसी हुई बाहें हैं तुझे क्या मालूम
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
शाम-ए-अयादत
ये किन निगाहों ने मिरे गले में बाहें डाल दीं
जहान भर के दुख से दर्द से अमाँ लिए हुए